पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३४१

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1 . ८ । ,,, .. • 1५१. ... • ••••••• . .। = = = = gf शिम : ।। • • •• •••••••••• • •• स्थिर होजाता क्योंकि जगत् में मनुष्य, सी, पुत्र, धन, मित्र आदि सकिर में फंसी रहता है परन्तु किसी को मन स्थिर नहीं होता जबतक निराकार में न लगावे क्योंकि निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है इसलिये मूर्तिपूजन करना अधर्म है। दूसरा---उसमे क्रोड़ों रुपये मन्दिरों में व्यय करके दरिद्र होते हैं और उसमें प्रमाद होता है। तीसरा--स्त्री पुरुषों का मन्दिरों में मेला होने से व्यभिचार लड़ाई बखेड़ा और रोगादि उत्पन्न होते हैं । चौथा---उसी को धर्म अर्थ काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थरहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाते हैं। पांचवनाना प्रकार की विरुद्धस्वरूप नाम चरित्रयुक्त मूर्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके विरुद्धमत मे चलकर आपस में फूट बढ़ा के देश का नाश करते हैं । छठा---उसीके भरोसे मे शत्रु का पराजये और अपना विजय मान बैठे रहते है। उनका पराजय होकर राज्य स्वातन्त्र्य और धन का सुख उनके शत्रुओं के स्वाधीन होता है और आप पराधीन भठियारे के टट्टू और कुम्हारे के गदहे के समान शत्रुओं के वशमें होकर अनेक विध दुःख पाते हैं । सातवां-जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरे तो जैसे वह उस पर क्रोधित होकर मारता वा गाली प्रदान देता है वैसे ही जो परमेश्वर के उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्तिया धरते हैं उन दुष्टबुद्धिवालों का सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे । अाठवां-भ्रान्त होकर मन्दिर २ देशदेशान्तर में घूमते ३ दुःख पाते धर्म संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते चोर अदि से पीड़ित होते ठूगों से ठगाते रहते हैं। नवव–दुष्ट पुजारियों को धन देते हैं वे उसे धन को वेश्या, परस्त्रीगमन, मद्य मांसाहार, लड़ाई बखेडों में व्यय करते हैं जिससे दाता के सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है । दशवां--माता पिता आदि माननीयों का अपमान कर पाषाणादि मूर्तियों का मान करके कृतन्न होजाते हैं। ग्यारहवां----उन मूर्तियों को कोई तोड़ डालता वा चोर ले जाता है, तब हाय २ करके रोते रहते हैं। बारहवा-पुजारी परस्त्रियों के सङ्ग और पुजारिन परपुरुषों के संङ्ग से प्राय: दूषित होकर स्त्री पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं । तेरहवा-स्वामी सेवक की आज्ञा का पालन यथावत् न होने से परस्पर विरुद्धभाव होकर नष्ट भ्रष्ट होजाते हैं । चौदहवां-जड़ का ध्यान करनेवाले की आत्मा भी जई बुद्धि होजाता है क्योंकि ध्येय का जड़त्व धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है। पन्द्रहवां-परमेश्वर |