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अथ द्वितीयसमुल्लासारम्भः ॥
अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः ॥
मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुष वेद ॥

यह शतपथ ब्राह्मण का वचन है । वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् माता दूसरा पिता और तीसरा आचायें होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है । वह कुल धन्य ! वह सन्तान बडा भाग्यवान् ! जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों । जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है उतना किसी से नहीं । जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता इसलिये (मातृमान्) अर्थात् “प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्” धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जबतक पूरी विद्या न हो तबतक सुशीलता का उपदेश करे ॥


माता और पिता को आतिउचित है कि गर्भाधान के पूर्व मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गन्ध, रूक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड के जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करें जैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुणयुक्त हो । जैसा ऋतुरामन की विधि अर्थात् रजोदर्शन के पांचवें दिवस से लेके सोलहवें दिवस तक ऋतुदान देने का समय है उन दिनों में से प्रथम के चार दिन त्याज्य हैं, रहे १२ दिन उनमें एकादशी और त्रयोदशी रात्रि को छोड़के बाकी दश रत्रियों में गर्भाधान करना उत्तम है और रजोदर्शन के दिन से लेके १६ वी रात्रि के पश्चात् न समागम करना । पुनः जबतक ऋतुदान का समय पूर्वोक्त न आवे तबतक और गर्भस्थित्ति के पश्चात् एक वर्ष तक संयुक्त न हों । जब दोनों के शरीर में आरोग्य, परस्पर प्रसन्नता, किसी प्रकार का शोक न हो । जैसा चरक और सुश्रुत में भोजन छादन का विधान और