पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३६२

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सत्यार्थप्रकाश' ।। जो भरजाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जल, स्थल, मगर, मच्छ, कच्छप, मत्स्यादि वनस्पति आदि बृक्ष कहां रहते हैं यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनानवाल के घर में भागकर चले गये होंगे !!! देखिये क्या ही असंभव कथा का गपोडा भंग की लहरी में उड़ाया जिनका ठौर ने ठिकाना ।। अब जि को ‘‘श्रीमद्भागवत” कहते हैं उसकी लीला सुन ब्रह्माजी को नारायण ने चतु श्लोकी भागवत का उपदेश किया -- ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमान्वितम् ।। सरहस्यं तदङ्गञ्च गृहाण गदितं मया ॥ भा० स्कं० २ । अ० है । लोक ३० ।। हे ब्रह्माजी ! तू मेरा परमगृह्य ज्ञान जो विज्ञान और रहस्ययुक्त और धर्म अर्थ | काम मोक्ष का अङ्ग है उसी का मुझ से ग्रहण कर । जव विज्ञानयुक्त ज्ञान कहा तो परम अर्थात् ज्ञान का विशेषण रखना व्यर्थ है और गुह्य विशेषण से रहस्य भी पुनरुक्त है जब मूल लेक अनर्थक है तो ग्रन्थ अनर्थक क्यों नहीं ? ब्रह्माजी को वर दिया कि भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कहिंचित् ॥ भाग, स्कं० २ । अ० ६ । श्लोक ३६ ।। । अप कल्प सृष्टि और विकल्प प्रलय में भी मोह को कभी न प्राप्त होंगे ऐसा लिख के पुन दशमस्कन्ध में माहित होके वरसहरण किया इन दोनों में से एक बात सची इमरी भूठो ऐसा होकर दोनो वान झूठी । जव वैकुण्ठ में राग, द्वेष, क्रोध, ईप्या, दु न नहीं हैं तो सनकादिकों को वैकुण्ठ के द्वार में क्रोध क्यों हुआ है जो क्रय है तो वह स्वर्ग ही नहीं तव जय विजय द्वारपालथे स्वामी की आज्ञा पालनी अवश्य थीं उन्होंने सनकादिकों को रोका तो क्या अपराध हुआ ? इस पर विना अपराचे शाप ही नहीं लग सकता, जय शाप लगा कि तुम पथिवी में गिर पड़ा इमके कहने में यह सिद्ध होता है कि वहा पृथिवं न होगी आकाश, वायु, अग्नि और जन होगा नो मा द्वार मन्दिर र जल किम के आधार थे पुनः जनजय । विजय ने मन ।दिक की स्तुति की कि महाराज ' पुन इम वैकुण्ठ में कत्र वेगे ? भन्ने उनमें : ६ : प्रम में नारायण की भक्ति रोने ना सातवे जन्म और ५। ३ भर इरो त नासरे न्न बैकुण्ठ को प्राप्त है । इसमें विचा। १६ •३, १६ 7 प ३५ व ६ नौकर थे उन ; रक्षा और माथे करन}