मनुस्मृति में स्त्री पुरुष की प्रसन्नता की रीति लिखी है उसी प्रकार करें और वर्त्तें गर्भाधान के पश्चात् स्त्री को बहुत सावधानी से भोजन छादन करना चाहिये । पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त की पुरुष का सङ्ग न करे । बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों ही का सेवन करती रहै कि जबतक सन्तान का जन्म न हो ॥
जब जन्म हो तब अच्छे सुगन्धियुक्त जल से बालक का स्नान नाड़ीछेदन करके
सुगन्धियुक्त घृतादि के होम[१] और स्त्री के भी स्नान भोजन का यथायोग्य प्रबन्ध
करे कि जिससे बालक और स्त्री का शरीर क्रमशः आरोग्य और पुष्ट होता जाय ।
ऐसा पदार्थ उसकी माता व धायी खावे कि जिससे दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त
हों । प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे पश्चात् धायी पिलाया करे
परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान पान माता पिता करावें जो कोई दरिद्र हों
धायी को न रख सकें तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम ओषधि जो कि बुद्धि
पराक्रम आरोग्य करनेहारी हों उनको शुद्ध जल में भिजो औटा छान के दूध के
समान जल मिला के बालक को पिलावें । जन्म के पश्चात बालक और उसकी माता
को दूसरे स्थान में जहां का वायु शुद्ध हो वह रक्खें, सुगन्ध तथा दर्शनीय पदार्थ
भी रखें और उस देश में भ्रमण कराना उचित है कि जहां का वायु शुद्ध हो और जहां धायी, गाय, बकरी आदि का दूध न मिल सके वहां जैसा उचित समझे वैसा करें क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है इससे स्त्री
प्रसवसमय निर्बल होजाती है इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे । दूध रोकने के
लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधि का लेप करे जिससे दूध स्रवित न हो । ऐसे
करने से दूसरे महीने में पुनरपि युवति होजाती है । तबतक पुरुष ब्रह्मचर्य्य से
वीर्य्य का निग्रह रक्खे, इस प्रकार जो स्त्री वा पुरुष करेंगे उनके उत्तम सन्तान दीर्घायु बल पराक्रम की वृद्धि होती ही रहेगी कि जिस से सब सन्तान उत्तम बल
पराक्रमयुक्त दीर्घायु धार्मिक हों । स्त्री योनिसङ्कोचन, शोधन और पुरुष वीर्य्य का
स्तम्भन करे । पुनः सन्तान जितने होंगे वे भी सब उत्तम होंगे ॥
बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा करे जिससे सन्तान सभ्य हों और किसी
अन्य से कुचेष्टा न करने पावें। जब बोलने लगे तब उसकी माता बालक की जिह्वा
- ↑ बालक के जन्म समय में “जातमसंस्कार” होता है उसमें हवनादि वेदोक्त कर्म्म होते हैं वे “संस्कारविधि” में सविस्तार लिख दिये हैं ।