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जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान प्रयत्न अर्थात् जैसे “प” इसका ओष्ठ स्थान और स्पष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक २ बोल सकना । मधुर, गम्भीर, सुन्दर, स्वर, अक्षर, मात्रा, वाक्य, संहिता, अवसान भिन् २ श्रवण होवे । जब वह कुछ २ वोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े, छोटे, मान्य, पिता, माता, राजा, विद्वान् आादि से भाषण, उनसे वर्त्तमान और उनके पास बैठने आदि की भी शिक्षा करें जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार न हो के सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे जैसे सन्तान जितेन्द्रिय विद्याप्रिय और सत्संग मे रुचि करें वैसा प्रयत्न करते रहें । व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता, ईर्ष्या, द्वेषादि न करे, उपस्थेन्द्रिय के स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता नपुसकता होती और हस्त में दुर्गन्ध भी होता है इससे उसका स्पर्श न करें । सद सत्यभाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन आादि गुणों की प्राप्ति जिस प्रकार हो करावे । जब पांच २ वर्ष के लड़का लड़की हों तब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें । अन्य देशीय भाषा के अक्षरों का भी । उसके पश्चात् जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म परमेश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान, अतिथेि, राजा, प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि से कैसे २ वर्तना इन वातो के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थसहित कण्ठस्थ करावे । जिनसे सन्तान किसी धूर्त के बहकाने में न आवे और जो २ विद्याधर्मविरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिरानेवाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश करदें जिससे भूत प्रेत आदि मिथ्या बातों का विश्वास न हो ।


गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।

प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति ॥

मनु॰ अ॰ ५ से ६५ ॥

अर्थ - जब गुरु का प्राणान्त हो तब मृतक शरीर जिनका नाम प्रेत है उसका दाह करनेहारा शिष्य प्रेतहार अर्थात् मृतक को उठानेवालों के साथ दशवें दिन शुद्ध होता है। और जब उस शरीर का दाह होचुका तब उसका नाम भूत होता है अर्थात् वह अमुकनामा पुरुष था, जितने उत्पन्न हों वर्त्तमान में आ के न रहें वे भूतस्थ होने से उन का नाम भूत है। ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है परन्तु जिस को शङ्का, कुसङ्ग, कुसंस्कार होता है उसको