पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३८८

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सत्यार्थप्रकाशः ।।। पांचवां “क” कि जिससे शत्रु से भेट भटक्का हाने से लड़ाई में काम आवे । इसीलिये यह रीति गोविन्दसिहजी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये की थी अब इस समय में उनका रखना कुछ उपयोगी नहीं हैं परन्तु अब जो युद्ध के प्रयोजन के लिये बातें कर्त्तव्य थीं उनको धर्म के साथ मान ली हैं मूर्तिपूजा तो नहीं करते किन्तु उससे विशेष ग्रन्थ की पूजा करते हैं, क्या यह मूर्तिपूजा नहीं है ? किसी जड पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उसकी पूजा करनी सब मूर्तिपूजा है जैसे | मूर्तिवालों ने अपनी दुकान जमाकर जीविका ठाड़ी की है वैसे इन लोगों ने भी करली है जैसे पुजारी लोग मूति का दर्शन कराते, भेट चढ़वाते हैं वैसे नानकपंथी लोग ग्रन्थ की पूजा करते, कराते, भेट भी चढवाते हैं अर्थात मूर्तिपूजावाले जितना वेद की मान्य करते हैं उतना ये लोग ग्रन्थसाहब वाले नहीं करते हा यह कहा जा सकता है कि इन्होंने वेदों को न सुना न देखा क्या करें जो सुनने और देखने में आवे तो बुद्धिमान् लोग जो कि हठी दुराग्रही नहीं है वे सव सम्प्रदायवाले वेदमत में आ जाते हैं । परन्तु इन सबने भोजन का बखेड़ा बहुतसा हटा दिया हैं जैसे इसको हटाया वैसे विपयासक्ति दुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है। ( प्रश्न ) दादूपंधी का मार्ग तो अच्छा है ? (उत्तर) अच्छा तो वेदमार्ग है जो पकड़ा जाय तो पकड़ो नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे इनके मत में दादूजी का जन्म गुजरात में हुआ था पुनः जयपुर के पास अमेर” में रहते थे तेल का काम करते थे ईश्वर की सृष्टि की विचित्र लीला है कि दादूजी भी पुजाने लग गये अव वेदादिशास्त्रों की ही सव वाते छोड़कर दादूराम २ में ही मुक्ति मानली है जब सत्योपदेशक नहीं होता तव ऐसे २ ही वखेड़े चला करते हैं। थोड़े दिन हुए ‘‘रामसनेही" मत शाहपुरा से चला है उन्होंने सब वेदोक्त धर्म को छोड़ के राम पुकारना अच्छा माना है उसी में ज्ञान ध्यान मक्ति मानते हैं परन्त जव भूख लगती है तव रामनाम' में से रोटी शाक नहीं निकलता क्योंकि खानपान आदि तो गृहस्थो के घर ही में मिलते हैं वे भी मतपजा को धिक्कारते हैं परन्त आप स्वयं मति वन रहे हैं स्त्रियों के संग में बहुत रहते हैं क्योंकि रामजी को 'रामकी के बिना आनन्द ही नहीं मिल सकता । एक रामचरण नामक साधु हुआ है जिसका मत मुख्य कर शाहपुरा स्थान

  • वाई से चला है वे “राम' २ कहने ही को परममंत्र और इसी कक्षद्धान्त मानते ( हैं। उनका एक प्रेय कि जिसमें सुन्तदासजी अदि की वाणी हैं ऐसा लिखते हैं: