पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३९४

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सत्यार्थप्रकाशः ।। व्यर्थ है क्योंकि जो अनन्त शब्द रक्खो तो “सहस्र' शब्द का पाठ न रखना चाहिये और जो सहस्र शब्द का पाठ रक्खो तो अनन्त शब्द का पाठ रखना सर्वथा व्यर्थ है और जो अनन्तकाल लो तिरोहित' अर्थात् आच्छादित रहै उसको मुक्ति के लिये वल्लभ का होना भी व्यर्थ है क्योंकि अनन्त का अन्त नहीं होता भला देहेन्द्रिय, प्राणान्त:करण और उसके धर्म स्वी, स्थान, पुन्न, प्राप्तधन का अर्पण कृष्ण को क्यों करना ? क्योंकि कृष्ण पूर्ण काम होने से किसी के देहादि की इच्छा नहीं कर सकते और देहादि का अर्पण करना भी नहीं हो सकता क्योंकि देह के अर्पण से नखशिखाग्रपर्यन्त देह कहता है उसमें जो कुछ अच्छी बुरी वस्तु है मले- " मूत्रादि का भी अर्पण कैसे कर सकोगे ? और जो पाप पुण्यरूप कर्म होते हैं उनको कृष्णार्पण करने से उनके फलभागी भी कृष्ण ही होवे अर्थात् नाम तो कृष्ण का लेते हैं और समर्पण अपने लिये कराते हैं जो कुछ देह में मलमूत्रादि हैं वह भी गोसाईजी के अर्पण क्यों नहीं होता '* क्या मीठा २ गडप और कड़वा २ धू' और यह भी लिखा है कि गोसाईजी के अर्पण करना अन्य मतवाले के नहीं यह सव स्वार्थसिन्धुपन और पराये धनादि पदार्थ हरने और वेदोक्त वर्म के नाश करने की लीला रची है । देखो यह वल्लभ का प्रपञ्च’--- श्रावणस्यामले पक्ष एकादश्यां महानिशि । साक्षाद्भगवती प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥ १ ॥ ब्रह्मसम्वन्धकरणात्सर्वेषां देहजीवयोः । सर्वदोषनिवृत्ति दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः ॥ २ ॥ सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः । संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कदाचन ॥ ३ ॥ अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन । असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्जनमाचरेत् ॥ ४ ॥ निवेदिभिः समप्यूँव सर्वं कुयादिति स्थितिः । न मतं देवदेवस्य स्वामिभुक्तिसमर्पणम् ॥