पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३९५

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एकादशसमुलाचः ||

तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम् । दत्तापहारवचने तथा च सकले हरेः ॥ ६ ॥ न ग्राह्यामिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम् । सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिध्यति ॥ ७ ॥ तथा कार्य समप्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः । गंगावे गुणदोषाणां गुणदोषादिवर्णनम् ॥ ८ ॥ इत्यादि श्लोक गोसाइयों के सिद्धान्तरहस्यादि ग्रन्थों में लिखे हैं यही गोसाइयों के मत का मूल तत्त्व है । भला इनसे कोई पूछे कि श्रीकृष्ण के देहान्त हुए कुछ कम पाच सहस्र वर्ष बीते वह वल्लभ से श्रावण मास की अधी रात को कैसे मिल सके ? || १ ॥ जो गोसाई का चेला होता है और उसको सव पदार्थों का समर्पण करता है उसके शरीर और जीव के सब दोषों की निवृत्ति होजाती है यही वल्लभ का प्रपंच मूर्खा को बहका कर अपने मत में लाने का है जो गोसाई के चेले चेलियों के सत्र दोप निवृत्त हो जाये तो रोग दारिद्रयादि दुःखों से पीड़ित क्यों रहै ? और दोष पाच प्रकार के होते हैं ।। २ ।। एक-सहज दोष जो कि स्वाभाविक अर्थात् काम क्रोधादि से उत्पन्न होते हैं। दूसरे-किसी देश काल में नाना प्रकार के पाप किये जायें । तीसरे-लेक में जिनको भक्ष्याभक्ष्य कहते और वेदोक्त जो कि मिथ्याभापणादि हैं। चौथे-संयोगज जो कि बुरे संग से अर्थात् चोरी, जारी, माता, भगिनी, कन्या, पुत्रवधू, गुरुपत्नी अादि से संयोग करना । पांचवें-स्पर्शज अस्पर्शनीयों को स्पर्श करना । इन पाच दो को गोसाई लोगों के मतवाले कभी न मार्ने अर्थात् यथेष्टाचार करें ।। ३ ।। अन्य कोई प्रकार दोषो की निवृत्ति के लिये नहीं है विना गोसाईजी के मत के, इसलिये विना समर्पण किये पदार्थ को गोसाईज के चेले न भोगें इसीलिये इनके चेले अपनी स्त्री, कन्या, पुत्रवधू और धनादि पदार्थों को भी समर्पित करते हैं परन्तु समर्पण का नियम यह है कि जब ल गोसाईजी की चरणसेवा में समर्पित न होवे तब लो उसका स्वामी स्वस्नी को स्पर्श न करे ।। ४ ।। इससे गोसाइर्यो के चेले समर्पण करके पश्चात् अपने २ पदार्थ का भोग करें क्योंकि स्वामी के भोग करे पश्चात् समर्पण नहीं हो सकता ॥ ५॥ इससे प्रथम सत्र कामों में सब वस्तुओं का समर्पण करें प्रथम गोसाईजी को भार्यादि समर्पण करके पश्चात् ग्रहण करें वैसे ही हरि को सम्पूर्ण पदार्थ समर्पण कर के ग्रहण करें ॥ ६ ।। गोसाईजी के