पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४०७

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एकादशसमुल्लासः ।। मान प्रतिष्ठा करते हैं उतना भी अन्य देशस्थ मनुष्यों का नहीं करते देखो ! कुछ सौ वर्ष से ऊपर इस देश में आये यूरोपियन को हुए और आजतक ये लोग मोटे कपड़े आदि पहिरते हैं जैसा कि स्वदेश में पहिरते थे परन्तु उन्होंने अपने देश की चाल चलन नहीं छोड़ा और तुम में से बहुतखे लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया इसी से तुम निवुद्धि और वे बुद्धिमान् ठहरते हैं अनुकरण करना किसी बुद्धिमान् का काम नहीं और जो जिस काम पर रहता है उसको यथोचित करता है आज्ञानुगत बराबर रहते हैं अपने देशवालों को व्यापार आदि में सहाय देते हैं इत्यादि गुणों और अच्छे २ कम से उनकी उन्नति है मुण्डे जूते, कोट, पतलून, होटल में खाने पीने आदि साधारण और बुरे कामों से नहीं बड़े हैं और इनमें जातिभेद भी है देखो ! जब कोई यूरोपियन चाहे कितने बड़े अधिकार पर और प्रतिष्ठित हो किसी अन्य देश अन्य मतवालों की लड़की का यूरोपियन की लडकी अन्य देशवाले से विवाह कर लेती है तो उसी समय उसका निमन्त्रण साथ बैठकर खाने और विवाह आदि को अन्य लोग बन्द कर देते हैं यह जातिभेद नहीं तो क्या ? और तुम भोलेभालों को बहकाते हैं कि हम में जातिभेद नही तुम अपनी मूर्खता से मान भी लेते हो इसलिये जो कुछ करना वह सोच विचार के करना चाहिये जिसमें पुन पश्चात्ताप करना न पड़े । देखो ! वैद्य और औषध की आवश्यकता रोगी के लिये है नीरोग के लिये नहीं विद्यावान् नीरोग और विद्यारहित अविद्यारोग से ग्रस्त रहता है। उस रोग के छुड़ाने के लिये सत्यविद्या और सत्योपदेश है उनको अविद्या से यह रोग है कि खाने पीने ही में धम्म रहता और जाता है जब किसी को खाने पीने में अनाचार करते देखते हैं तब कहते और जानते हैं कि वह धर्मभ्रष्ट होगया उसकी बात न सुननी और न उसके पास बैठते न उसको अपने पास बैठने देते अव काहिये कि तुम्हारी विद्या स्वार्थ के लिये है अथवा परमार्थ के लिये परमार्थ तो तभी होता कि जब तुम्हारी विद्या से उन अज्ञानियों को लाभ पहुचता जो कहा कि वे नहीं लेते हम क्या करें यह तुम्हारा दोष है उनका नहीं क्योंकि तुम जो अपना आचरण अच्छा रखते तो तुमसे प्रेम कर वे उपकृत होते सो तुमने सहस्रों का उपकार नाश करके अपना ही सुख किया सो यह तुमको बड़ा अपराध लगा क्योंकि परोपकार करना धम्म और पर हानि करना अधर्म कहता है इसलिये विद्वान् को यथायोग्य व्यवहार करके अज्ञानियों को दुःखसागर से तारने के लिये नौकरूप होना चाहिये सर्वथा नृपः ।