पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४१८

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सत्यार्थप्रकाश: । कुछ २ पढते पढाते भी हैं इसलिये वे 'अच्छे होंगे । (उत्तर ) ये सय दश नाम पीछे से कल्पित किये हैं सनातन नहीं, उनकी मण्डलिया केवल भेजनार्थ हैं बहुतसे साधु भोजन ही के लिये मण्डलियों में रहते हैं दम्भी भी हैं क्योंकि एक को महन्त वना सायंकाल में एक महन्त जोकि उनमें प्रदान होता है वह गद्दी पर बैठ जाता है सब ब्राह्मण और साबु खड़े होकर हाथ में पुप ले:--- नारायणं पद्मभवं वसिष्टं शक्तिं च तत्पुचपराशरं च ।। व्यास शुकं गौड़पदं महन्तम् ।। इत्यादि श्लोक पढ़ के हर दूर बोल उनके ऊपर पुष्प वरसा कर साष्टाङ्ग नमस्कार करते हैं जो कोई ऐसा न करे उसको वहां रहना भी कठिन है यह दम्भ संसार को दिखलाने के लिये करते हैं जिससे जगत् में प्रतिष्ठा होकर माले मिले कितने ही मठधारी गृहस्थ होकर भी सन्यास का अभिमानमात्र करते हैं कर्म कुछ नहीं सन्यास का वहीं कर्म है जो पाचवें समुल्लास में लिख अाये हैं उसको न करके व्यर्थ समय खोते हैं। जो कोई अच्छा उपदेश करे उसके भी विरोधी होते हैं बहुथा ये लोग भस्म, रुद्राक्ष धारण करते और कोई २ शैव संप्रदाय का अभिमान रखते हैं और जब कभी शास्त्रार्थ करते हैं तो अपने मत अर्थात् शङ्कराचार्योक्त का स्थापन और चक्राङ्कित आदि के खण्डन में प्रवृत्त रहते हैं वेद मार्ग की उन्नति और यावत्पाखण्ड मागे हैं तावन् के खण्डन में प्रवृत्त नहीं होते ये सन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हम को खण्डन मण्डन से क्या प्रयोजन ? हम तो महात्मा हैं ऐसे लोग भी संसार में भाररूप हैं। जब ऐसे है तभी तो वेदमार्गविरोधी वाममार्गादि संप्रदायी, ईसाई, मुसलमान, जैनी आदि बड़ गये अब भी बढ़ते जाते हैं और इनका नाश होता जाता है तो भी | इनकी आंख नहीं खलती ! खले कहर से १ जो कुछ उन के मन में परोपकार बुद्धि और कर्त्तव्यकर्म करने में उत्साह होवे किन्त ये लोग अपनी प्रतिष्ठा खाने पीने के सामने अन्य अधिक कुछ भी नहीं समझते और संसार की निन्दा से वहुत डरते हैं पुनः ( लोकैषणा ) लोक में प्रतिष्ठा (वितैषणा) धन वढाने में तत्पर होकर विपयभोग (पुत्रेपणा) पुत्रवत् शिष्यों पर मोहित हाना इन तीन एषणाओं का त्याग करना उचित है जब एषणा ही नहीं छूटी पुनः संन्यास क्योंकर हो सकता है ? अर्थात् पक्षपात राहत | वेदमार्गोपदेश से जगत् के कल्याण करने में अहर्निश प्रवृत्त रहना संन्यासियों का