पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४२

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द्वितीयसमुद्दास:॥

मंग प र रूप दि फर्म से प्राप्तचारी लोग पृथ रहकर उत्तम शिक्षा और थिा फो प्राप्त होवे 1 जिसके शरीर मे वीर्य नही होता वह नपुंसक महा सरां प्री २ जिसका प्रमारोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, स[8भ, चैर्य, बल, पररहित है जो Iअनद डर्षों से होकर नष्ट हो जाता। तुम लोग सुविधा मोर बिया) के प्रमएवार्य की रक्षा करने में इस समय चूकग तf पुनइस जन्म में तुगतो यह्य ष मूल्य मय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक cम लांग गृ: मेंr के करनेवाले जीते हैं तभीतक तुमको विद्या प्रहण 1 "58 (र का ग बढ़ना IItव इसी प्रकार की अन्य २ शिक्षा भी माता॥ '3। पिगकरें इन्चेि ‘सामातृ पितृमान शब्द का प्रण उक्त वचन में किया है। 41 स्म से ५ वें प तक वालंका को माता, ६ ठे वप से ८ वे वर्ष तक पित लिए w "tर ९ में वर्ष के आरम्भ में दूिन अपने सन्तानो का उपनयन करक ! चर्व डन में "प्रथीन अटा पृ विद्वान् और पूर्ण विदुषी की शिक्षा और विद्यद्यान फेरबाले वहां राह घोर लड़कियों को भेज दें और शूद्रादि बर्ण उपनयन किये 1 ना विद्याभ्यास के लिये गुरुकुल म भेज दे। उन्हीं के सन्तान विद्वान, सभ्य और iदत ctत हैं, जो पढ़ने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते किन्तु ताडना तें करते रहते हैं, इसमें व्याकरण सहभाष्य का प्रमाण है: सामः पाणिभिनन्ति गुरवो न विपक्षितैः। ललनाभांयंण दोषास्तानाश्रयिण गुणाः ॥ आ० ८। १। ८ ॥ अर्थ--जो माता पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताडन करते हैं वे जानो अपने सन्सन और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्ता वा शिष्यों का लाड़न करते है वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं क्योंकि लडन से सन्तान और शिष्य दोषयुक तथा ताड़ना से गुणयुक होते हैं और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और ! लाइन से आसन्न सदा रा करें।,परन्तु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईय, प से तड़न न करें किन्तु ऊपर से भयप्रद्यान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें। जैसी अन्य शिक्षा की वैसी चोरीजारीआलस्य, प्रसाद, मादक द्रव्य, मिथ्याभा पण, हिंसा, क्रूरता, ईष्र्या, द्वेष, मोह आदि दोषों के छोडने और सत्याचार के प्रहण करने की शिक्षा करेंक्योंकि जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरीजारी