पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४२८

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-- --- ४२२ রাখা. i इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है क्योंकि मेरे पीछे कोई भी जीव प्रत्यक्ष नहीं होता हम एक प्रत्यक्ष ही को मानते हैं क्योंकि प्रत्यक्ष के विना अनुमानादि होते ही नहीं इस लिये मुख्य प्रत्यक्ष के सामने अनुभानादि गौण होने से इनका ग्रहण नहीं करते सुन्दर जी के आलिङ्गन से आनन्द झा करना पुरुषार्थ का फल है। ( उत्तर ) ये पृथिव्यादि भूत जड़ हैं उनसे चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं होसकती । जैसे अव । माता पिता के संयोग से देह की उत्पत्ति होती है वैसे ही आदि सृष्टि में मनुष्यादि शरीरों की आकृति परमेश्वर कुत्तों के विना कभी नहीं हो सकती । मद् के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता क्योंकि मद चेतन को होता है जड़ को नहीं । पदार्थ नष्ट अर्थन अदृष्ट होते है परन्तु अभाव किसी का नहीं होता इसी | प्रकार अदृश्य होने से जीव का भी अभाव न मानना चाहिये । जब जीवात्मा । सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती हैं जब शरीर को छोड़ देता है तब यह । शरीर जो मृत्यु का प्राप्त हुआ है वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व था वैसा नहीं होसकता। यही वात वृहदारण्यक में कही हैं - नाहं मोहं ब्रवीमि अनुच्छत्तिधनात्मेति ॥ याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे मैत्रेयि ! मैं मोह से बात नहीं करता किन्तु आत्मा अविनाशी है जिग्ने योग से शरीर चट्टा करता हैं जब जीव शरीर से पृथक् होजाती है तव शरीर में ज्ञान कुछ भी नई इतः जो देह से पृथक् आत्मा न हो तो जिसके संयोग में चतनता और वियोग से जड़ता होती है वह देह से पृथक् हैं जैसे अखि सत्र के देखती हैं परन्तु अपने नहीं, इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करनेवाला अपने को एन्द्रिय प्रत्यक्ष नई कर सकता जसे अपनी याब से लव धट पटादि पदार्थ देखता है वैसे आख के अपने कान उ देखता है । ज द्रष्टा ६ वइ द्रष्टा ही रहता है दृश्य कभी नई होता जैसे विना अवर अवय, कारण के बिना काय, अवयवी के बिना अवयव आर कत्ता ॐ विना कर्म नहीं रह सकते ३से कुत्ता के बिना प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है जा सुन्दर व ॐ नाथ मनाम र द का पुरुषार्थ छ। फल माने तो क्षणिक सुरु और उससे दुर ः इन न भ पदार्थदी का फन होना । जव ऐसा है " ने छ नि ने 4 द ख गनः पङगा । जे हो दु.ख के उड़ाने अंर सुर ५.२ इन। ५६ व गुङि नुव की हानि होजाती है इसलिये वह पुरुष = == ==

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