पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४२९

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। द्वादशसमुल्लास: । ४२३ । का फल नहीं । ( चारवाक ) जो दुःख संयुक्त सुख का त्याग करते हैं वे मूर्ख हैं। । जैसे धान्यार्थी धान्य का ग्रहण और चुस का त्याग करता है वैसे संसार में बुद्धिमान् सुख का ग्रहण और दुःख का त्याग करें क्योकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़ के अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्त कथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिये करते हैं वे अज्ञानी है। जो परलोक है ही नहीं तो उसकी आशा करना मूर्खता का काम है क्योंकि -- अग्निहोॐ त्रयो वेदाशिडे अस्वगुण्ठनम् ॥ बुद्धिपौरुषहीनानां जीविक्रेति वृहस्पतिः ।। चारवाकमतप्रचारक ‘‘बृहस्पति कहता है कि अग्निहोत्र, तीन वेद, तीन दण्ड और भस्म का लगाना बुद्धि और पुरुषार्थरहित पुरुषों ने जीविका बनाली है। किन्तु कांटे लगने आदि से उत्पन्न हुए दुःख का नाम नरक, लोकसिद्ध राजा परमेश्वर और देह का नाश होना मोक्ष अन्य कुछ भी नहीं है ।( उत्तर ) विषयरूपी सुखमात्र को पुरुषार्थ का फल मानकर विषये दु ख निवारणमात्र में कृतकृत्यता और स्वर्ग मानना मूर्खता है अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है उसको न जानकर वेद ईश्वर और वेदोक्त धर्म की निन्दा करना चूत का काम है। जो त्रिदण्ड और भस्मधारण का खण्डन है सो ठीक है। यदि कण्टकादि से उत्पन्न ही दे ख का नाम नरक हो तो उससे अधिक महारोगादि नरक क्या नहीं ? । यद्यपि राजा का एश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक हैं गरन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो उसो भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी | मुख नही। शरीर का विच्छेद होनामात्र मन है तो गदई कुत्ते अादि और तुम में क्या भेद रहा है किन्तु प्राकृति ही मात्र भित्र रही। ( चारवाफ ):-- अग्निरुष्णो जले शीतं शीतस्पर्शस्तथाऽनिलः ।। केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तयवस्थितः ।। १ ।। न स्वग ना.ऽपवर्गो वा नैला पालकिकः ।। नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिः ।। २ ।।