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सत्यार्थप्रकाश:।।

मिथ्याभाषणादि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नदf होती। जैसी हानि प्रतिज्ञा को मिथ्या करनेवाले की होती है वैसी अन्य किसी की नहीं । इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिये अथन जस किसी ने किमी से कहT कि ' में तुम को बा तुम मुम से श्रमुक समय ) में भिगा वा मिलना अथत्रा श्रमुक वस्तु अमुक समय में तुमको मैं अँग' इसको ! वैसे ही पूरी करे नहीं तो उसकी प्रतीति कोई भी न करेगा इसलिये सदा सब भाषण और सत्यप्रतिज्ञायुक्क सब को होना चाहिये । कि सी को अभिमान न करना चाहिये, छलकपट वा कृतघ्नता से अपना ही हृदय दुखित होता है तो दूसरे की क्या कथा कहनी चाहिये । छल और कपट उसको कहते हैं जो भीतर और बाहर और रख दूसरे को मोह में डाल और दूसरे की हानि पर ध्यान न देकर स्वयो- जन से करना 1 ‘कृतनता उसको कहते हैं कि किसी के किये हुए उपकार ! को न मानना । क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त ोंर मधुर व चन दें। बोले और बहुत बकवाद न करे । जितना वोलना चाहिये उससे न्यून वा अधिक न बोले । वडों को मान्य दे, उनके सामने उठकर जा के उच्चासन पर बैठावे प्रथम ‘नमस्ते" करे उनके सामने उत्तमासन पर न बैठे, सभा में वैसे स्थान में 1 बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई न उठावे, विरोध किसी से न करे, संपन्न होकर गुणों का प्रहण और दोषों का त्याग रक्खे, सज्जनों का संग करें दुष्टों का त्याग, आपने माता, पिता और आचार्य की तन मन और धनादि उत्तम उत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करे । है - यान्यस्माक७ सुचरितानि तानि स्वयोपास्यानि नो इतराणि ॥ तैत्ति० प्रपा० ७ । अ० ११ ॥ इसका यह अभिप्राय है कि माता पिता आचार्य अपने सन्तान और शिष्य फो सद्म सत्य उपदेश करे और यह भी कहें कि जो २ हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं उन उनका प्रहण करो २ दुष्ट कर्म और जो हों त्याग करोजो उनका कर दिया , २ सत्य का प्रकाश और प्रचार कर । किसी पाखण्डी, दुटाचारी सनुष्य है जाने उन २ ' और और आचाट्र्य पर न जिम २ उपम कर्म के लिये साता, पिसा विश्वास करें श्नाहा ट्रैवं उस २ का यथेष्ट पालन करें जस मःता पिता ने धर्म, विवr, अच्छे आचरण के श्लोक ‘निघण्ट ‘iनेस क7 : " अष्टाध्यायी अथवा अन्य सूत्र बा