पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४३०

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४२४ सत्यार्थप्रकाशः ।। ।। , पशुश्चेन्नितः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति । स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ॥ ३ ॥ मृतानामपि जन्तूनां श्राद्ध चेतृप्तिकारणम् ।। गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम् ॥ ४॥ स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः ।। प्रासादस्योपरिस्थानापन्न कमान्न दीयते ॥ ५ ॥ यावज्जीवेत्सुखं जीवेणं कृत्वा धृतं पिवेत् ।। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागसलं कुतः ॥ ६ ॥ यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेड़ विनिर्गतः ।। कस्माद्भूयो न चायात बन्धुस्नेहसमाकुलः ॥ ७ ॥ ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह । मृतानां प्रेतकार्याणि न वन्यद्विद्यते कचित् ॥ ८॥ त्रयो वेदस्य कर्तारो भण्डधूर्तनिशाचराः । जफरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानों वचः स्मृतम् ॥ ९ ॥ अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम् । भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्तितम् ॥ १० ॥ मांसानां स्नादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम् ॥ ११ ॥ चारवाक, भाणक, वौद्ध और जैन भी जगत् की उत्पत्ति स्वभाव से मानते हैं । जो २ स्वाभाविक गुण हैं उस २ से द्रव्यसयुक्त होकर सव पदार्थ बनते हैं कई जगत् का कचा नहीं ।।१।। परन्तु इनमें से चारबाक ऐसा मानता है किन्तु परलोक और जीवात्मा बौद्ध जैन मानते हैं चारवाक नहीं शेष इन तीनों का मत कोई२वात छार के एक सा है। न कोई स्वर्ग, न कोई नरक और न कोई परलोक में जानेवाला अात्मा । है और न वा भ्रम की क्रिया फलदायक है।।२|| जो यज्ञ में पशु को मार होम करने ।