पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४३२

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सत्यार्थप्रकाश: । । मत है इसलिये इस बात का खण्डन अखण्डनीय है ।। ३ ।। ४ ।। ५ ।। जो वस्तु है । उसका अभाव कभी नहीं होता, विद्यमान जीव का अभाव नहीं हो सकता, देह भस्म होजाता है जीव नहीं, जीव तो दूसरे शरीर में जाता है इसलिये जो कोई अणादि कर विराने पदार्थों से इस लोक में भोग कर नहीं देते हैं वे निश्चय पाप होकर दूसरे जन्म में दुःखरूपी नरक भोगते हैं इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।। ६ ।। देह से निकल कर जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है और उसको पूर्वजन्म तथा कुडम्बादि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता इसलिये पुनः कुटुन्व में नहीं सकता ॥ ७ ॥ हां ब्राह्मणों ने प्रेतकर्म अपनी जीविज्ञार्थ बनलिया है - रन्तु वेदोक्त न होने से खण्डनीय हैं ।। ८ ।। अय कहिये जो चारवाक आदि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे सुने वा पढे होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि वेद भांड धूर्त और निशाचरवत् पुरुषों ने बनाये हैं ऐसा वचन कभी न निकालते, हा भांड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं उनकी धूर्तता है वेदों की नहीं परन्तु शोक है चारवाक, अभाणक वौद्ध और जैनियों पर कि इन्होंने मूल चार वेदों की संहिताओं को भी न सुना न देखा और न किसी विद्वान् से पढ़ा इसलिये नष्ट भ्रष्ट बुद्धि होकर ऊटपटांग वेदों की निन्दा करने लगे दुष्ट वाममागियों को प्रमाणशून्य कपोलकल्पित भ्रष्ट टीकाओं को देखकर वेदों से विरोधी होकर विद्यारूपी अगाध समुद्र में जागिरे ॥ ९ ॥ भला विचारना चाहिये की स्त्री से अश्व के लिङ्ग का ग्रहण कराके उससे समागम कराना और यजमान की कन्या से हांसी ठट्टा अादि करना सिवाय वाममार्गी लोगों से अन्य मनुष्यों का काम नहीं है विना इन महापापी वाममार्गियों के भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्याख्यान कौन करता ! अत्यन्त शोक तो इन चारवाक आदि पर है जो कि बिना विचारे वेदों की निन्दा करने पर तत्पर हुए तनिक तो अपनी बुद्धि से काम लेते । क्या करें विचारे उनमें इतनी विद्या ही नहीं थी जो सत्यासत्य का विचार कर सत्य का मुण्डन और असत्य का खण्डन करते ॥ १०!! और जो मांस खाना है वह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारा ; की लीला है इसलिये उनको राक्षस कहना उचित हैं परन्तु वेदों में कहीं मांस का ? खाना नहीं लिखा इसलिये इत्यादि मिथ्या वातों का पाप इन टीकाकारों के अरि । जिन्होंने वेदों के जाने सुने विना मनमानी निन्दा की है नि.सन्देह उनको लगे। सच तो यह है कि जिन्होंने वेदों में विरोध किया और करते हैं और करंगे । अवश्य अविद्यारूपी अन्धकार में पड़के सुख के बदले दारुण दु ख जितना पावं - वना ही न्यून हैं। इसलिये मनुष्यमात्र को वेदानुकूल चलना समुचित है ॥ ११ ॥