पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४३५

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द्वादशसमुल्लास: ।।। . के समान अवकाश कहा है इसलिये बाहर पर्वत है और पर्वतज्ञान आत्मा में रहता है सौत्रान्तिक किसी पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं मानता तो वह अाप स्वयं और उसका वचन भी अनुमेय होना चाहिये प्रत्यक्ष नहीं जो प्रत्यक्ष न हो तो “अयं घट:' यह प्रयोग भी न होना चाहिये किन्तु अयं घटैकदेशः यह घट का एक देश है और एक देश का नाम घट नहीं किन्तु समुदाय का नाम घट है “यह घट है यह प्रत्यक्ष है अनुमेय नहीं क्योंकि सब अवयवों में अवयवी एक है उसके प्रत्यक्ष होने से सब घट के अवयव भी प्रत्यक्ष होते हैं अर्थात् सावयव घट प्रत्यक्ष होता है। चौथा वैभापिक वाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष मानता है वह भी ठीक नहीं क्योंकि जहां झाता और ज्ञान होता है वहीं प्रत्यक्ष होता है यद्यपि प्रत्यक्ष का विषय बाहर होता है तदाकार ज्ञान आत्मा को होता है वैसे जो क्षणिक पदार्थ और उसका ज्ञान क्षणिक हो तो प्रत्यभिज्ञा' अर्थात् मैंने वह बात की थी ऐसा स्मरण न होना चाहिये परन्तु पूर्व दृष्ट श्रुत का स्मरण होता है इसलिये क्षणिकवाद भी ठीक नहीं जो सब दुःख ही हो और सुख कुछ भी न हो तो सुख की अपेक्षा के विना दुःख सिद्ध नहीं हो सकता जैसे रात्रि की अपेक्षा से दिन और दिन की अपेक्षा से रात्रि होती है इसलिये सब दुःख मानना ठीक नहीं जो स्वलक्षण ही मानें तो नेत्ररूप का लक्षण है और रूप लक्ष्य है जैसा घट' का रूप घट के रूप का लक्षण चक्षु लक्ष्य से भिन्न है। और गन्ध पृथिवी से भिन्न है इसी प्रकार भिन्नाभिन्न लक्ष्य लक्षण मानना चाहिये । शून्य का जो उत्तर पूर्व दिया है वही अर्थात् शून्य का जाननेवाला शून्य से भिन्न होता है। सर्वस्य संसारस्य दुःखात्मकत्वं सर्वतीर्थकरसंगतम् ॥ जिनको बौद्ध तीर्थकर मानते हैं उन्हीं को जैन भी मानते हैं इसीलिये ये दोनों एक हैं और पूर्वोक्त भावना चतुष्टय अर्थात् चार भावनाओं से सकल वासनाओं की निवृत्ति से शून्यरूप निर्वाण अर्थात् मुक्ति मानते है अपने शिष्यों को योग आचार का उपदेश करते हैं गुरु के वचन का प्रमाण करना अनादि बुद्धि में वासना होने से बुद्धि ही अनेकाकार भासती है उनमें से प्रथमस्कन्धः-- " रूपविज्ञानवेदनासंज्ञासंस्कारसंज्ञकः ॥ ( प्रथम ) जो इन्द्रियों से रूपादि विषय ग्रहण किया जाता हैं वह रूपस्कन्ध ( दूसरा ) लयविज्ञान प्रवृत्ति का जाननारूप व्यवहार को विज्ञानस्कन्ध’’ |