पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| सत्यार्यशः ।। ( तीसरा ) रूपस्कन्ध और विज्ञानस्कन्ध से उत्पन्न हुआ सुख दुःख आदि प्रतीतिरूप व्यवहार को वेदनाकन्छ ( चौथा ) गौ आदि संज्ञा का सम्बन्ध नामी के साथ मानने रूप को सज्ञास्कन्ध' ( पांचवां ) वेदनात्कन्ध से राग द्वेयादि क्लेश और क्षुधा तृपादि उपक्लेश, मद, प्रमाद, अभिमान, धर्म और अधर्मरूप व्यवहार को संस्कारस्कन्ध मानते हैं। सच संसार में दुःखरूप दुःख का वर दु ख का साधनरूप भावना करके संसार से छूटना चारवार्को में अधिक मुक्ति और अनुमान तथा जीव को न मानना वौद्ध मानते हैं ।। देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगाः ।। भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्बहुभिः किल ॥ १ ॥ गम्भीरोत्तानभेदेन कचिच्चोभयलक्षणः । भिन्ना हि देशना भिन्ना शून्यताद्वयलक्षणा ॥ २ ॥ अर्थानुपाये वहशो द्वादशयितनानि वै । परितः पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितैः ॥ ३ ॥ ज्ञानेन्द्रियाणि पचैव तथा कर्मेन्द्रियाणि च ।। मनो वुद्धिरित प्रोकं द्वादशायतनं बुधैः ॥ ४ ॥ अर्थात् जो ज्ञानी, विरक्त, जीवनमक लोकों के नाथ बुद्ध आदि तीर्थकरी के पदार्थों के स्वरूप को जाननेवाला, जो कि भिन्न २ पदार्थों का उपदेशक है जिसका बहुत से भेद और बहुत से उपायों से कहा है उसको मानना ॥ १ ॥ बड़े गन्भार । और प्रसिद्ध भेद से कहीं २ गुप्त और प्रकटता से भिन्न २ गुरु के उपदेश जो कि न्यून लक्षणयुक्त पृर्व कई अाय उनका मानना ।। २।। जो द्वादशायतन पूजा ३ व नाक्ष करनेवाली है इस पूजा के लिये तसे इत्यादि पदावे को प्राप्त है* मायनन अर्थान् बारह प्रकार के नविशप बना सब प्रकार से पूजा करना । में अन्य की पूजा करने से क्या प्रयोजन ।। ३ ।। इनकी द्वादशायतन पू ! १३ पांच ५न इन्द्रिय थन् अन्न, , चे, जहा और नासिका ! पा । ८-दय 41 ५६, ८, पार, गुर र उपरथ ये १० इन्द्रिवां और मन, ३ न ६, 5- ६५ प्र-१, इन 5 नन्द प्रवृत्त र दयादि द क ब ६ । । । । । ३तुद् , ।। भ र ४ ५ हdि: * ईव की प्र! नन ।