पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४३७

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द्वादशसमुखः ॥ ४३१ चाहिये संसार में जीवों की प्रवृत्ति प्रत्यक्ष दीखती है इसलिये सब संसार दुःखरूप नहीं हो सकता किन्तु इसमे सुख दुःख दोनों हैं। और जो बौद्ध लोग ऐसा ही सिद्धान्त मानते हैं तो खानपानादि करना और पथ्य तथा ओषध्यादि सेवन करके शरीररक्षण करने में प्रवृत्त होकर सुख क्यों मानते हैं ? जो कहैं कि हम प्रवृत्त तो होते हैं परन्तु इसको दु.ख ही मानते हैं तो यह कथन ही सम्भव नही क्योंकि जीव सुख जानकर प्रवृत्त और दुख जान के निवृत्त होता है। संसार में धर्म क्रिया विद्या सत्संगादि श्रेष्ठ व्यवहार सब सुखकारक हैं इनको कोई भी विद्वान् दुःख का लिङ्ग नहीं मान सकता विना बौद्ध के । जो पांच स्कन्ध हैं वे भी पूर्ण अपूर्ण हैं क्योंकि जो ऐसे २ स्कन्ध विचारने लगे तो एक २ के अनेक भेद हो सकते हैं। जिन तीर्थक्रों को उपदेशक और लोकनाथ मानते हैं और अनादि जो नाथों का भी नाथ परमात्मा है उसको नहीं मानते तो उन तीर्थकों ने उपदेश किससे पाया ? जो हैं कि स्वयं प्राप्त हुआ तो ऐसा कथन सम्भव नहीं क्योंकि कारण के विना कार्य नहीं हो सकता । अथवा उनके कथनानुसार ऐसा ही होता तो अब भी उनमें विना पढे पढाये सुने सुनाये और ज्ञानियों के सत्सग किये विना ज्ञा२नी क्यों नहीं होजाते जव नहीं होते तो ऐसा कथन सर्वथा निर्मूले और युक्तिशून्य सन्निपात रोगग्रस्त मनुष्य के वड़ने के समान है जो शून्यरूप ही अद्वैत उपदेश बौद्धों का है। तो विद्यमान बस्तु शून्यरूप कभी नहीं होसकता, हा सूक्ष्म कारणरूप तो होजाता है। इसलिये यह भी कथन भ्रमरूपी है । जो द्रव्यों के उपार्जन से ही पूर्वोक्त द्वादशायतनपूजा मोक्ष का साधन मानते हैं तो दश प्राण और ग्यारहवें जीवात्मा की पूजा क्यों नहीं करते ? जब इन्द्रिय और अन्त करण की पूजा भी मोक्षप्रद है। तो इन बौद्धों और विषयी जनों में क्या भेद रहा है जो उनसे ये बौद्ध नहीं बच सके तो वहा मुक्ति भी कहां रहीं जहां ऐसी बातें हैं वहा मुक्ति का क्या काम ? क्याही इन्होंने अपनी अविद्या की उन्नति की है जिसका सादृश्य इनके विना दूसरों से नहीं घट सकता निश्चय तो यही होता है कि इनको वेद ईश्वर से विरोध करने का यही फल मिला । पूर्व तो सब ससार की दुःखरूपी भावना की, फिर बीच में द्वादशायतन पूजा लगा दी, क्या इनकी द्वादश।यतनपूजा संसार के पदार्थों से बाहर की है जो मुक्ति की देनेदारी होसके तो भला कभी आंख मीच के कोई | रत्न ढूंढा चाहै वा ढुंढे कभी प्राप्त हो सकता है ? ऐसी ही इनकी लीला व ईश्वर ।।