पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४०

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| सत्यार्थप्रकाशः ।। सकता, जो वासनाच्छेद ही मुक्ति है तो सुपुप्ति में भी मुक्ति माननी चाहिये ऐसा मानना विद्या से विरुद्व होने के कारण तिरस्करणीय है । इत्यादि बातें संक्षेपतः बौद्धमतस्थों की प्रदर्शित कर दी हैं अव बुद्धिमान् विचारशील पुरुष अवलोकन करके जान जायेंगे कि इनकी कैनी विद्या और कैसा मत है। इसको जैन लोग भी मानते हैं । । यहां से आगे जैनमत का वर्णन है । प्रकरणरत्नाकर १ भाग, नयचक्रसार में निम्नलिखित वातें लिखी हैं: बौद्ध लोग समय २ में नवीनपन से ( १ ) आकाश, (२) काल, (३ ) जीव, ( ४ ) पुद्गल ये चार द्रव्य मानते हैं और जैनी लोग धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल इन छ: द्रव्यों को मानते हैं । इनमें काल को आस्तिकाय नहीं मानते किन्तु ऐसा कहते हैं कि काल उपचार से द्रव्य है वस्तुत' नहीं उनमें से धमस्तिकाय जो गतिपरिणामीपन से परिणाम को प्राप्त हुआ जीव और पुद्गल इसकी गति के समीप से स्तम्भन करने का हेतु है वह धमस्तिकाय और वह असंख्य प्रदेश परिमाण और लोक में व्यापक है। दूसरा अधर्मास्तिकाय यह है कि जो स्थिरता से परिणामी हुए जीव तथा पुद्गल की स्थिति के प्रश्रय का हेतु है। तीसरा “आकाशास्तिकाय उसको कहते हैं कि जो सब द्रव्यों का आधार जिसमें अवगाहन प्रवेश निर्गम आदि क्रिया करनेवाले जीव तथा पुद्गलों को अवगाहन का हेतु और सर्वव्यापी है। चौथा ‘‘पुद्गलास्तिकाय यह है कि जो कारणरूप सूक्ष्म, नित्य, एक रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श कार्य का लिङ्ग पूरने और गलने के स्वभाववाला होता है । पांचव जीवास्तिकाय जो चेतनाजक्षण ज्ञान दर्शन में उपयुक्त अनन्त पर्याय से परिणामी होनेवाला कर्ता भोक्ता है। और छठा ‘‘काल यह है कि जो पूर्वोक्त पंचास्तिकच का परत्व अपरत्व नवीन प्राचीनता का चिन्हरूप प्रसिद्ध वर्तमान रूप पयायों से युक्त है वह काल कहाता हैं। ( समीक्षक ) जो वौद्धों ने चार द्रव्य प्रति ममय में नवीन २ माने हैं वे झूठे हैं क्योंकि आकाश, काल, जवि और परमाणु ये नये व पुराने कभी नहीं हो सकते क्योंकि ये अनादि और कारण रूप से अविनाशी है पुन नया और पुरानापन कैसे घट सकता है । और जेनिया का मानना भी ठीक नहीं क्योंकि यमधर्म द्रव्य नहीं किन्तु । | गुण हैं ये दोन जीवान्तिका में जाने है इमलिये आकाश, परमाणु, जीव ।