पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४१

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द्वादशसमुल्लाघः ॥ ४३५ ।। ! र काल मानते तो ठीक था और जो नव द्रव्य वैशेषिक मे माने हैं वे ही ठीक हैं क्योंकि पृथिव्यादि पाच तत्व, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव पृथक् २ पदार्थ निश्चित हैं, एक जीव को चेतन मानकर ईश्वर को न मानना यह जैन बौद्धों के मिथ्या पक्षपात की बात है। “अब जो वौद्ध और जैन लोग सप्तभंग और स्याद्वाद मानते हैं सो यह है कि “सन् वट:' इसको प्रथम भंग कहते हैं क्योंकि घट अपनी वर्तमानता से युक्त अर्थात् बड़ा है इसने अभाव का विरोध किया हैं। दूसरा भग “असन् घट: घड़ा नहीं है प्रथम घट के भाव से इस घड़े के असद्भाव से दूसरा भंग है। तीसरा भंग चेह ॐ कि सनसन्न वट ' अर्थात् यह बड़ा तो है परन्तु पट नहीं क्य% उन दोनों से पृथक् होगया । चौथा भंग ‘‘बटोऽघटः' जैसे “अघटः पट: दूसरे पट के अभाव की अपेक्षा अपन में होने से घट अधट कहाता है युगपत् उसकी दो संज्ञा अर्थात् घट और अघट भी है। पांचवां भग यह है कि घट को पट कहना अयोग्य अर्थात् उस में घटेपन वक्तव्य है और पटपन अवक्तव्य है । छठा भग यह है कि जो घट नहीं हैं वह कहने योग्य भी नहीं और जो है वह है। और कहने योग्य भी है । और सातवां भग यह है कि जो कहने को इष्ट है परन्तु वह नहीं है और कहने के योग्य भी घट नहीं यह सप्तमभंग कहाता है इसी प्रकार. यादस्ति जीवोऽयं प्रथम भगः ॥ १ ॥ स्यान्नाास्त जीवो द्वितीयो भंगः ॥ २ ॥ स्यादवक्तव्यो जीवस्तृतीयो भंगः ॥ ३ ॥ स्वादास्त नास्ति नास्तिरूपो जीवश्चतुर्थो भंगः ॥ ४॥ स्यादस्ति अबक्तव्यो जीवः पंचमो भगः ।। ५॥ स्यान्नास्ति अवक्तव्य जीवः षष्ठो भगः ॥ ६ ॥ स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य जीव इति सप्तो भगः ॥ ७ ॥ । अर्थात् हे जीव, ऐसा कथन होवे तो जीव के विरोधी जड़ पदार्थों का जीव में अभावरूप भंग प्रथम करता है। दूसरा भंग यह है कि नहीं है जीव जड़ में ऐसा | कथन भी होता है इससे यह दूसरा भग होता है। जीव है परन्तु कहने योग्य नही ।