पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४४

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४४० । उत्पार्थः ॥ करना भी यथार्थ घटता है क्योंकि जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण, कर्म, स्वभाव भी ' नित्य होते हैं उनकी प्रशंसा करने में कोई भी प्रतिबंधक नहीं ।। ३ ।। जैसे मनुष्यों । में कर्ता के बिना कोई भी कार्य नहीं होता वैसे ही इस महत्कार्य का कर्ता के विना होना सर्वथा असंभव है । जब ऐसा है तो ईश्वर के होने में मृढ को भी सन्देह नहीं । हो सकता । जब परमात्मा के उपदेश करनेवालो से सुनेंगे पश्चात् उसका अनुवाद करना भी सरल है ।। ४ ।। इससे जैनों के प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ईश्वर का खंडन करना अदि व्यवहार अनुचित है ।।। | ( प्रश्न ):-- अनादेरागमस्या न च सर्वज्ञ आदि मान्। कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ॥ १ ॥ अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यैः प्रदीयते । प्रकल्पेत कथं सिद्धिरल्योऽन्याश्रययोस्तयोः ॥ २ ॥ सर्वज्ञोकतथा वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता ।। कथं तदुभयं लिध्येत् लिद्धसूलान्तरादृते ॥ ३ ॥ बीच में सर्वज्ञ हुआ अनादि शाम का अर्थ नहीं हो सकता क्योंकि किये हुए । असत्य वचन से उसका प्रतिपादन किस प्रकार से हो सके 2 ।। १ ।। और जो परः । मेश्वर ही के वचन से परमेश्वर सिद्ध होता है तो अनादि ईश्वर से अनादि शास्त्र । की सिद्धि, अनादि शास्त्र से अनादि ईश्वर की सिद्धि, अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। {। २ ।। क्योंकि सर्वज्ञ के कथन से वह वेदवाक्य सत्य और उसी वेदवचन से ईश्वर की सिद्धि करते हो यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? उस शास्त्र और परमेश्वर का सिद्धि के लिये तीसरा कोई प्रमाण चाहिये जो ऐसा मानोगे तो अनवस्था दोष अवगी ॥ ३ ॥ ( उत्तर ) हम लोग परमेश्वर और परमश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव को अनादि मानते हैं, अनादि नित्य पदार्थों में अन्योऽन्याश्रय दोष नहीं सकता जैसे काव्य से कारण का ज्ञान और कारण से कार्य का वध होता है, कार्य में कारण स्वभाव और कारण से कार्य का स्वभाव नित्य है वैसे परमेश्वर और परमेश्वर के | अनन्त विद्यादि गुण नित्य होने स ईश्वरप्रणीत वेद में अचवस्था दोष नहीं आ , तः । -- . ।