पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४८

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३४४ सत्यार्थप्रकाशः || फल भोगना नहीं चाहता इसलिये अवश्य परमात्मा न्यायाधीश होना चाहिये । (नास्तिक) जगत् में एक ईश्वर नहीं किन्तु जितने मुक्त जीव हैं वे सच ईश्वर हैं। (आस्तिक ) यह कथन सर्वथा व्यर्थ है क्योकि जो प्रथम बद्ध होकर मुक्त हो तो पुनः बन्ध में अवश्य पड़े क्योंकि वे स्वाभाविक सदैव मुक्त नहीं जैसे तुम्हारे चौवीस तीर्थकर पहिले वद्ध थे पुनः मुक्त हुए फिर भी बन्ध में अवश्य गिरेगे और जब वहुत से ईश्वर हैं तो जैसे जीव अनेक होने से लड़ते, भिड़ते, फिरते हैं वैसे ईश्वर भी लड़ा भिड़ा करेंगे । ( नास्तिक ) हे मूढ़ जगत् का कर्ता कोई नहीं किन्तु जगत् स्वयंसिद्ध है । ( आस्तिक) यह जैनियों की कितनी बड़ी भूल है भला विना कृत्त के कोई कर्म, कर्म के विना कोई कार्य जगत् में होता दीखता है ! यह ऐसी बात है। कि जैसे गेहूं के खेत में स्वयंसिद्ध पिसान, रोटी बनके जैनियों के पेट में चली जाती हो ! कपास, सूत, कपड़ा, अङ्गरखा, दुपट्टा, धोती, पगड़ी आदि बनके कभी नहीं आते ! जब ऐसा नहीं तो ईश्वर कुत्तों के विना यह विविध जगत् और नाना प्रकार की रचना विशेष कैसे बन सकती है जो हठधर्म से स्वयंसिद्ध जगत् को मानो तो स्वयंसिद्ध उपरोक्त वस्त्रादिकों को कर्ता के बिना प्रत्यक्ष कर दिखलाओ जव ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते पुन. तुम्हारे प्रमाणशून्य कथन को कौन बुद्धिमान् मान सकता है? । ( नास्तिक) ईश्वर विरक्त हैं वा मोहित ? जो विरक्त है तो जगत् के प्रपंच में क्यों पड़ा ? जो मोहित है तो जगत् के बनाने का समर्थ नहीं हो सकेगा। (आत्तिक) परमेश्वर में वैराग्य वा मोह कभी नहीं घट सकता, क्योंकि जो सर्वव्यापक हैं वह किसको छोड़े और किसको ग्रहण करे ईश्वर से उत्तम वा उसको अप्राप्त कई पदार्थ नहीं है इसलिये किसी में मोह भी नहीं होता वैराग्य और मोह का होना जीव में घटता है ईश्वर में नहीं । ( नास्तिक ) जो ईश्वर को जगत् का कत्ता र जीवों के कम के फलों का दाता मानोगे तो ईश्वर प्रपंची होकर दु.ख होजायगा । ( आरितक) भला अनेकविध कम का कर्ता और प्राणियों को फलों का दाता धार्मिक न्यायाधीश विद्वान् कमें में नहीं फसता न प्रपंच होता है तो : परमेश्वर अनन्त सानथ्यवाला प्रपंची और दुःखी क्योंकर होगा ? हां तुम अपने 1 और नै त, रों के समान परमेश्वर को भी अपने अज्ञान से समझते हो स्रो { *: पद्या की लीला है जो अविद्यादि दोष से छूटना चाहा तो वेदादि सत्य 7। प्राय ले क्यों भ्रम में पदे २ ठकर खाते हैं ? ।। | + । न न न् । ॐ मानते हैं वैसा इनके सूत्रों के अनुसार दिलाते ।