पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४५४

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। ४५० सत्यार्थप्रकाशः । मानना केवल बालकपन की बात है क्योंकि जिसके अधिकरण का अन्त है तो उस | में रहनेवालों का अन्त क्यों नहीं ? ऐसी ही लम्बी चौड़ी मिथ्या बातें लिखी हैं, अब जीव और अजीव इन दो पदार्थों के विषय में जैनियों का निश्चय ऐसा है: चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्यकः । सत्कर्मपुद्गलाः पुण्यं पापं तस्य विपर्ययः ॥ यह जिनदत्तसूरि का वचन है और यही प्रकरणरत्नाकर भाग पहिले में मयचक्र। सार में भी लिखा है कि चेतनालक्षण जीव और चेतनारहित अजीव अर्थात् जड़ है। • सत्कर्मरूप पुद्गल पुण्य और पापकर्मरूप पुद्गल पाप कहाते हैं। (समीक्षक) जीव और जड़ का लक्षण तो ठीक है परन्तु जो जडरूप पुद्गल हैं वे पापपुण्ययुक्त कभी नहीं हो सकते क्योंकि पाप पुण्य करने का स्वभाव चेतन में होता है देखो ! ये जितने जड पदार्थ हैं वे सब पाप पुण्य से रहित हैं जो जीवोंको अनादि मानते है यह तो । ठीक है परन्तु उसी अल्प और अल्पज्ञ जीव को मुक्ति दशा में सर्वज्ञ मानना झूठ है । क्योंकि जो अल्प और अल्पज्ञ है उसका सामर्थ्य भी सर्वदा समीप रहेगा । जैनी लोग जगत् , जीव, जीव के कर्म और बन्ध अनादि मानते हैं यहा भी जैनियों के तीर्थंकर भूलगये हैं क्योंकि संयुक्त जगत् का कार्यकारण, प्रवाह से कार्य और जीव के कर्म, बन्ध भी अनादि नहीं हो सकते जब ऐसा मानते हो तो कर्म और बन्ध का छूटना क्र्यों मानते हो ? क्योंकि जो अनादि पदार्थ है वह कभी नहीं छूट सकता। जो अनादि का भी नाश मानोगे तो तुम्हारे सब अनादि पदार्थों के नाश का प्रसंग होगा और जय अनादि को नित्य मानोगे तो कर्म और वन्ध भी नित्य होगा।और जब | ! सर्व कर्म के नाश का प्रसंग होगा और जवे अनादि को नित्य मानोगे तो कर्म और यन्ध भी नित्य होगा और जव सव कमें के छूटने से मुक्ति मानते हो तो सब कमा ! को छूटनारूप मुक्ति का निमित्त हुआ तव नैमित्तिकी मुक्ति होगी तो सदा नहीं रहे | * सकेगी और कर्म कत्त का नित्य सम्बन्ध होने से कर्म भी कभी न छूटेंगे पुनः ज । तुमने अपनी मुक्ति और तीर्थंकरों की मुक्ति नित्य मानी है सो नहीं बन सकेगी। ! ( प्रश्न ) जैसे धान्य का छिलका उतारने वा अग्नि के संयोग होने से वह बीज पुनः । । नई इगता इसी प्रकार मुक्ति में गया हुआ जीव पुन, जन्ममरणरूप संसार में न । । अar ( उत्तर ) जव और कर्म का सम्बन्ध छिलके और वीज के समान नहीं है कि