पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४५५

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द्वादशसमुल्लासः ॥ ४५१ । इनका समवाय सम्बन्ध है, इससे अनादि काल से जीव और उसमें कर्म और कर्तत्वशक्ति का सम्बन्ध है, जो उसमें कर्म करने की शक्ति का भी अभाव मानोगे तो सर्व जीव पाषाणवत हो जायेंगे और मुक्ति को भोगने का भी सामथ्र्य नहीं रहेगा,जैसे अनादि काल का कर्मबन्धन छूटकर जीव मुक्त होता है तो तुम्हारी नित्य मुक्ति से भी छूट कर बन्धन में पड़ेगा क्योंकि जैसे कर्मरूप मुक्ति के साधनों से भी छूटकर जीव का मुक्त होना मानते हो वैसे ही नित्य मुक्त से भी छूट के बन्धन में पड़ेगा, साधनों से सिद्ध ' हुआ पदार्थ नित्य कभी नहीं हो सकता और जो साधन सिद्ध के विना मुक्ति सानोगे तो कर्मों के विना ही बन्ध प्राप्त हो सकेगा। जैसे वस्त्रों में मैल लगता और धोने से छूट जाता है पुनः मैल लग जाता है वैसे मिथ्यात्वादि हेतु से रागद्वेषादि के आश्रय से जीव को कर्मरूप फल लगता है और जो सम्यक्ज्ञान दर्शन चरित्र से निर्मल होता है और मल लगने के कारणों से मल का लगना मानते हो तो मुक्त जीव संसारी और संसारी जीव का मुक्त होना अवश्य मानना पड़ेगा क्योंकि जैसे निमित्त से मलिनता छूटती है वैसे निमित्तों से मालिनता लग भी जायगी इसलिये जीव को बन्ध और मुक्ति प्रवाहरूप से अनादि मानो अनादि अनन्तता से नहीं । ( प्रश्न ) जीव निर्मल कभी नहीं था किन्तु मलसहित है । ( उत्तर ) जो कभी निर्मल नहीं था तो निर्मल भी कभी नहीं हो सकेगा जैसे शुद्ध वस्त्र में पीछे से लगे हुए मैल को धोने से छुड़ा देते हैं उस के स्वाभाविक श्वेत वर्ण को नहीं छुड़ा सकते मैल फिर भी वस्त्र में लग जाता है इसी प्रकार मुक्ति में भी लगेगा । ( प्रश्न ) जीव पूर्वोपार्जित कर्म ही से शरीर धारण कर लेना है, ईश्वर का मानना व्यर्थ है । ( उत्तर } जो केवल कर्म ही शरीर धारण में निमित्त हो, ईश्वर कारण न हो तो वह जीव बुरा जन्म कि जहां बहुत दुःख हो उसको धारण कभी न करे किन्तु सदा अच्छे २ जन्मधारण किया करे। जो कहो कि कर्म प्रतिवन्धक है तो भी जैसे चोर अाप से के बन्दीगृह में नहीं जाता और स्वयं फांसी भी नहीं खाता किन्तु राजा देता है, इसी प्रकार जीव को शरीरधारण कराने और उसके कमांनुसार फल देने वाले परमेश्वर को तुम भी मानो । ( प्रश्न ) मद (नशा ) के समान का स्वयं प्राप्त होता है। फळ देने में दूसरे की आवश्यकता नही । ( उत्तर ) जो ऐसा हो तो जैसे मदपान करनेवालों को मद् कम चढता, अनभ्यासी को बहुत चढ़ता है, वैसे नित्य बहु १२ पाप पुण्य करनेवालों को न्यून और कभी २ थोड़ा २ पाप पुण्य करनेवालों का १ प्रधिम् । फल होना चाहिये और छोटे कर्मवालों को अधिक फल होवे । ( प्रश्न ) सिका