पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

। द्वादशसमुल्लासः ।।

अरे जीव । एक ही जिनमत श्रीवीतरागभाषित धर्म संसार सम्बन्धी जन्म जरामरणादि दु:खो का हरणकत्ता है इसी प्रकार सुदेव और सुगुरु भी जैनमतवाले को जानना इतर जो वीतराग ऋषभदेव से लेके महावीर पर्यन्त वीतराग देवों से भिन्न अन्य हरिहर ब्रह्मादि कुदेव हैं उनकी अपने कल्याणार्थ जो जीव पूजा करते हैं वे सब मनुष्य ठगाये गये हैं। इसका यह भावार्थ है कि जैनमत के सुदेव सुगुरु तथा सुधर्म को छोड़ के अन्य कुदेव कुगुरु तथा कुधर्म को सेवने से कुछ भी कल्याण नहीं होता ।। (समीक्षक ) अब विद्वानों को विचारना चाहिये कि कैसे निन्दायुक्त इनके धर्म के पुस्तक है ! ।। मूल-अरिहं देबो सुगुरु सुद्धं धनं च पंच नवकारो । धन्नाणं कयच्छाणं निरन्तर वसई हियमि ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी ६० । सू० १ ॥ जो अरिहन् देवेन्द्रकृत पूजादिकन के योग्य दूसरा पदार्थ उत्तम कोई नहीं ऐसा जो देवो का देव शोभायमान अरिहन्त देव ज्ञान क्रियावान् शास्त्रों का उपदेष्ट। शुद्ध कषाय मलरहित सम्यक्त्व विनय दयामूल श्रीजिनभाषित जो धर्म है वही दुर्गति में पड़नेवाले प्राणियों का उद्धार करनेवाला है और अन्य हरिहरादि का धर्म संसार | से उद्धार करनेवाला नहीं और पच अरिहन्तादिक परमेष्ठी तत्सम्बन्धी उनको नमस्कार ये चार पदार्थ धन्य हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं अर्थात् दया, क्षमा, सम्यक्त्व, ज्ञान दर्शन और चारित्र यह जैनों का धर्म है । ( समीक्षक ) जन मनुष्यमात्र पर दया नहीं वह दया न क्षमा ज्ञान के बदले अज्ञान दर्शन अधेर र चरित्र के बदले भूखे मरना कैनसी अच्छी बात है ? । जैनमत के धर्म की प्रशंसा:-- मूल-जइन कुणास तव चरणं न ढाल न गुणोसि देसि नों दाणम् । ता इत्तियं न किसिज देवो इश्क अरिहन्तो ॥ प्रकरण० ० २ । षष्ठी सू० २ ॥ | हे मनुष्य ! जो तू तप चरित्र नही कर सकता, न सूत्र पढ़ सकता, न प्रकर णादि का विचार कर सकता और सुपान्नादि को दान न दे सकता, तो भी जा त देवता एक अरिहन्त ही हमारे अराधना के योग्य सुगुर सुवर्म जैनमत में श्रद्धा रखना सर्वोत्तम वात और उद्धार का कारण है ।। ( समीक्षक ) यपि दया र क्षमा