पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४५९

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। द्वादशसमुल्लासः ॥ 05:47, 10 February 2019 (UTC)05:47, 10 February 2019 (UTC)05:47, 10 February 2019 (UTC)05:47, 10 February 2019 (UTC)05:47, 10 February 2019 (UTC) ये चार मोक्ष मार्ग के साधन हैं इनकी व्याख्या योगदेव ने की है जिस रूप से जीवादि द्रव्य अवस्थित हैं उसी रूप से जिनप्रतिपादित ग्रन्थानुसार विपरीत अभिनिवेषादिरहित जो श्रद्धा अर्थात् जिनमत में प्रीति है सो सम्यक् श्रद्धान और सम्यक् दर्शन है। रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जिनोक्त तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा करनी चाहिये अर्थात् अन्यत्र कहीं नहीं ॥ । यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तरेण वा ।। यो बोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ॥ जिस प्रकार के जीवादि तत्त्व हैं उनको संक्षेप वा विस्तार से जो बोध होता । | | है उसी को सम्यग्ज्ञान बुद्धिमान कहते हैं॥ सर्वथाऽनवद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते ।। कीर्तितं तदहिंसादि व्रतभेदेन पञ्चधा ॥ . अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचय्यपरिग्रहाः । सब प्रकार से निन्दनीय अन्य मतसम्बन्ध का त्याग चारित्र कहाता है और अहिंसादि भेद से पांच प्रकार का व्रत है । एक ( अहिंसा ) किसी प्राणीमात्र को न भारना। दूसरा ( सूनुता ) प्रिय वाणी बोलना । तीसरा (अस्तेय ) चोरी न करना । चौथा ( ब्रह्मचर्य ) उपस्थ इन्द्रिय का संयमन । और पांचवां (अपरिग्रह ) सब वस्तुओं का त्याग करना । इनमें बहुतसी बातें अच्छी हैं अर्थात् अहिंसा और चोरी अादि निन्दनीय कर्मों का त्याग अच्छी बात है परन्तु ये सब अन्य मत की निन्दा करने अादि दोषों से सब अच्छी बातें भी दोषयुक्त होगई हैं जैसे प्रथम सूत्र में लिखी हैं अन्य हरिहरादि को धर्म संसार में उद्धार करनेवाला नहीं । क्या यह छोटी निन्दा है कि जिनके ग्रन्थ देखने से ही पूर्ण विद्या और धार्मिकता पाई जाती है उसको बुरा कहना और अपने महा असंभव जैसा कि पूर्व लिख आये वैसी बातों के कहनेवाले अपने तीर्थंकरों की स्तुति करना केवल इठ की बातें हैं भला जो जैन कुछ चारित्र न कर सके, न पढ़ सके, न दान देने का सामर्थ्य हो तो भी जैनमत सञ्चा है क्या इतना कहने ही से वह उत्तम होजाय ? और अन्य मतवाले श्रेष्ठ भी अश्रेष्ठ होजायें ? ऐसे कथन करनेवाले मनुष्यों का भ्रान्त और चालवुद्धि न कहा जाय तो क्या कहें ? इसमें यहीं विदित होता है कि इनके प्राचार्य स्वाथ थे पूर्ण विद्वान् ।