पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६०

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== = == = ४५८ | सत्यार्थप्रकाशः ।। जैसे प्रथम लिख आये कि सर्प में मणि का भी त्याग करना उचित है वैसे अन्य मागियों में श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों का भी त्याग कर देना, अब उससे भी विशेष निन्दा अन्य मतवालों की करते हैं जैनमत से भिन्न सब कुगुरु अर्थात् वे सर्प से भी बुरे हैं उनका दर्शन, सेवा, संग कभी न करना चाहिये क्योंकि सप्प के संग | से एक बार मरण होता है और अन्यमार्गी कुगुरुओं के सग से अनेक वार जन्म मरण में गिरना पड़ता है इसलिय हे भद्र ! भन्यमागियों के गुरुभों के पास भी मत ! खड़ा रह क्योंकि जो तू अन्यमार्गयों की कुछ भी सेवा करेगा तो दु.ख में पड़ेगा। ( समीक्षक ) देखिये जैनियों के समान कठोर, भ्रान्त, द्वेष, निन्दक, भूला हुआ दूसरे मतवाले कोई भी न होंगे इन्होंने मन से यह विचार हैं कि जो हम अन्य की निन्दा और अपनी प्रशंसा न करेंगे तो हमारी सेवा और प्रतिष्ठा न होगी परन्तु यह ! वाव उनके दौर्भाग्य की है क्योंकि जबतक उत्तम विद्वानों का संग सेवा न करेंगे तबतक इनको यथार्थ ज्ञान और सत्य धर्म की प्राप्ति कभी न होगी इसलिये जनियों को उचित है कि अपनी विद्याविरुद्ध मिथ्या बातें छोड़ वेदोक्त सत्य बातों का ग्रहण करें तो उनके लिये बडे कल्याण की बात है ।। मूल-किं भणिमा किं करिमो ताणहयासाण धिठदुठाएं । । जे देसि ऊण लिंगं खिवंत नरवम्मि मुद्धजणं ।। 'प्रक० भा० २ । षष्ठी० सू० ४० ॥ जिसकी कल्याण की आशा नष्ट होगई, धीठ, बुरे काम करने में अतिचतुर दुष्ट दोषवाले से क्या कहना है और क्या करना क्योंकि जो उसका उपकार करा तो उलटा उसका नाश करे जैसे कोई दया करके अन्धे सिंह की आंख खोलने को जाय तो वह उसी को खा लेवे वैसे ही कुगुरु अर्थात् अन्यमार्गियों का उपकार करना अपना नाश कर लेना है अर्थात् उनसे सदा अलग ही रहना । ( समीक्षक ) जैसे जैन लोग विचारते हैं वैसे दूसरे मतवाले भी विचारें तो जैनियों की कितनी दुर्दशा हो ? और उनका कोई किसी प्रकार का उपकार न करे तो उनके बहुत से काम नष्ट होकर कितना दु.ख प्राप्त हो ? वैसा अन्य के लिये जैनी क्यों नहीं विचारते ? | मूल-जहजहतुट्टई धम्मो जहजह दुठाणहोय अइउदउ । समदिठिाजयाण तह तह उल्लसइस मतं ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी० स० ४२ ॥