पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६२

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सत्यार्थप्रकाशः ॥ मरुतदेवी आदि को मानते हैं उनका भी खण्डन करते तो अच्छा था, जो कहें कि हमारी देवी हिंसक नही तो इनका कहना मिथ्या है क्योंकि शासनदेवी ने एक पुरुष और दूसरा बकरे की आंखें निकाल ली थीं पुनः वह राक्षसी और दुर्गा कालिका की सगी बहिन क्यों नहीं है और अपने यच्चखाण मादिं व्रतों को अतिश्रेष्ठ और नवमी आदि को दुष्ट कहना मूढ़ता की बात है क्योंकि दूसरे के उपवासों की तो निन्दा और अपने उपवासों की स्तुति करना मूर्खता की बात है, हां जो सत्यभाषणादि व्रत धारण करने हैं वे तो सब के लिये उत्तम हैं जैनियों और अन्य किसी का उपवास सत्य नहीं है। मूल-चेसाण्वंदियाणय माहणडु बाणजर कसिरकाणं । भत्ता भर कठाणं वियाणं जन्ति दूरेणं ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी० सूत्र ८२ ॥ इसका मुख्य प्रयोजन यह हैं कि जो वेश्या, चारण, भाटादि लोगों, आमाण, यक्ष, गणेशादिक मिथ्यादृष्टि देवी आदि देवताओं का भक्त हैजो इनके माननेवाले हैं वे सब डुबाने और डूबनेवाले हैं क्योंकि उन्हीं के पास वे सब वस्तुएं मानते हैं और वीतराग पुरुषों से दूर रहते हैं ॥ ( समीक्षक ) अन्य मार्गियों के देवताओं को झूठ कहना और अपने देवताओं को सच कहना केवल पक्षपात की बात है और अन्य धाममार्गियों की देवी आदि का निषेध करते हैं परन्तु जो श्राद्धदिनकृत्य के पृष्ठ ४६ में लिखा है कि शासनदेवी ने रात्रि में भोजन करने के कारण एक पुरुष के थपेड़ा मारा उसकी आंख निकाल डाली उसके बदले बकरे की आंख निकाल कर उस मनुष्य के लगा दी इस देवी को हिंसक क्यों नहीं मानते ? रत्नसागर भाग १ पृ० ६७ में देखो क्या लिखा है मरुतदेवी पथिकों को पत्थर की मूर्चिहोकर सहाय करती थी इसको भी वैसी क्यों नहीं मानते १ ।। मूल-किंसोपि जणणि जाओ जाणे जणणी इकिं अगो- । विद्धिं । जइमिच्छरो जो गुणे सुतमच्छर वहई ॥ प्रक० भा० २। षष्ठी० सूत्र ८१ ॥ | जो जनमतविरोधी मिथ्यात्वी अर्थात् मिथ्या धर्मवाले हैं वे क्यों जन्मे पूजा | जन्मे तो बढ़े क्यों ? अर्थात् शीघ्र ही नष्ट होजाते तो अच्छा होता ।। ( समीक्षक) !