पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६४

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पत्यार्थप्रकाशः ।। जो जिनदेव की आज्ञा दया क्षमादि रूप धर्म है उससे अन्य सब आमा अधर्म हैं । ( समीक्षक ) यह कितने बड़े अन्याय की बात है क्या जैनमत से भिन्न कोई । भी पुरुष सत्यवादी धर्मात्मा नहीं हैं? क्या इस धार्मिक जन को न मानना चाहिये ।। हां जो जैनमतस्थ मनुष्यों के मुख जिह्वा चमड़े कीन होती और अन्य की चमडे की होती तो यह बात घट सकती थी इससे अपने ही मत के ग्रन्थ वचन साधु आदि की। ऐसी बडाई की है कि जानो भाटों के बड़े भाई ही जैन लोग बन रहे हैं । मूल-वन्नेमिनारया उविजेसिन्दुरकाइ सम्भरैताणम् । भव्वाण जणइ हरिहररिद्धि समिद्धी विउद्घोस । प्रक० भा० २ । षष्ठी० सू० ६५ ॥ इसका मुख्य तात्पर्य यह है कि जो हरिहरादि देवों की विभूति है वह नरू का हेतु है उसको देख के जैनियों के रोमाञ्च खड़े होजाते हैं जैसे राजाज्ञा भंग : करने से मनुष्य मरणतक दुःख पाता है वैसे जिनेन्द्र आज्ञाभंग से क्यों न जन्म मरण । दु.ख पावेगा ? ।। ( समीक्षक ) देखिये ! जैनियों के प्राचार्य आदि की मानसी वृत्ति अर्थात् ऊपर के कपट और ढोग की लीला अव तो इनके भीतर की भी सुलगई। हरिहरादि और उनके उपासकों के ऐश्वर्य और बढ़ती को दुख भी नहीं सकते उन के रोमाञ्च इसलिये खड़े होते हैं कि दूसरे की बढती क्यों हुई । बहुधा वैस चाहते होंगे कि इनका सव ऐश्वर्य हमको मिल जाय और ये दुरिद्र होजायँ तो अच्छा और राजाज्ञा का दृष्टान्त इसलिये देते हैं कि ये जैन लोग राज्य के बड़े सुशामद। झूठे और इरपुकने हैं क्या झूठी बात भी राजा की मान लेनी चाहिये जो ईष्या इया हो तो जैनियों से बढ के दूसरा कोई भी न होगा । मूल-जो देशुद्धधम्म सो परमप्या जयम्मि नहु अन्नो ।। किं कप्पदुम्म सरसो इयरतरू होइकइयावि ॥ प्रक० भा० २ । पष्ठी सू० १०१ । । ३ भर लोग हैं जो मैनधर्म से विरुद्ध हैं अंर जा जिनेन्द्रमापित यः॥१८' । भ3 जा गइन्थ अथवा अन्यफत्तावन झरों ॐ तुल्य है उनके तुल्य कोई भी न १ मुझ ५ ) य न ! उनी लेाग छोकर बुद्धिन हेत व एसी बात क्या है?