पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६६

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४६४ सत्यार्थप्रकाशः ।। देओ तो तुम्हारे शरीर का पालन पोषण भी न होसके और जो तुम्हारे कहने से सब लोग छोड़ दें तो तुम क्या वस्तु खाके जीओगे १ ऐसा अत्याचार को उपदेश करता सर्वथा व्यर्थ है क्या करें विचारे विद्या सत्संग के विना जो मन में आया सो बक दिया | मूल-तइया हमाण अहम कारण रहिया अनाण गव्येण । जेजंपन्ति उशुत्तं तेसिदिद्धिछपम्सिच्चे । | प्रक० भा० २ । षष्ठी० सं० १२१ ॥ | जो जैनागम से विरुद्ध शास्त्रों के माननेवाले हैं वे अधमाधम हैं चाहे कोई प्रयोजन भी सिद्ध होता हो तो भी जैनमत से विरुद्ध न वोले न माने चाहे कोई प्रयोजन सिद्ध होता है तो भी अन्य मत का त्याग करदे ।। ( समीक्षक ) तुम्हारे मूल । पुरुषा से ले के आजतक जितने होगये और होंगे उन्होंने विना दूसरे मत को गालि | प्रदान के अन्य कुछ भी दूसरी बात न की और न करेंगे भला जहां जहां जैनी लोग । अपना प्रयोजन सिद्ध होता देखते हैं वहां चलों के भी चल बन जाते हैं तो ऐसी मिथ्या लम्बी चौड़ी वार्ता के हांकने में तनिक भी लज्जा नहीं आती यह बड़े शोक की बात है। मूल-जस्वीर जिणस्साजो मिरई उस्सुत्तले सदेसणश्रो । सागर कोड़ा कोडिंहिँ मइ अइ भी भवरणे ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी सू० १२२ ॥ जो कोई ऐसा कहे कि जैनसाधुओं में धर्म है हमारे और अन्य में भी धर्म है । तो वह मनुष्य क्रोडान्कोड़ वर्ष तक नरक में रहकर फिर भी नीच जन्म पाता है । ( समीक्षक ) वाइरे ! वाह !! विद्या के शत्रुओ तुमने यही विचारा होगा कि हमारे मिथ्या वचनों का कोई खण्डन न करे इसीलिये यह भयंकर वचन लिखा है सो असम्भव है अब कहांतक तुमको समझावें तुमने तो झूठ निन्दा और अन्य मतां से वैर विर.ध करने पर ही कटिबद्ध होकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना मोहनभोग | ममान समझ लिया है ।। मूल-दूरे करणं दूरम्मि साहूणे तहयभावणा दूरे । जिधणम्म सद्दहाणं पितर कदुरकाइनिठवइ ॥ प्रक० भा० २ | पृष्टी० सृ० १२७॥