पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

। द्वादशसमुल्लासः ।। | जिस मनुष्य से जैनधर्म का कुछ भी अनुष्ठान न हो सके तो भी जो जैनधर्म । संशा है अन्य कोई नहीं इतनी श्रद्धामात्र ही से दुःख से वर जाता है।( समीक्षक) भला इससे अधिक मूख को अपने मतजाल में फंसाने की दूसरी कौनसी बात होगी ? क्योंकि कुछ कर्म करना न पड़े और मुक्ति हो ही जाय ऐसा भूदू मत कौनसा होगा ?।। मू-कइया होही दिवसो जइया सुगुरुण पायमूलम्मि । उस्सुत्त सविसलवर हिलेओनिसुणे सुजिणधम्मं ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी० स० १२८ ॥ जो मनुष्य हूं तो जिनागम अर्थात् जैनों के शानों को सुनूंगा उत्सूत्र अर्थात् अन्य मत के ग्रन्थों को कभी न सुनूंगा इतनी इच्छा करे वह इतनी इच्छामात्र ही से दुःखसागर से तरजाता है । ( समीक्षक ) यह भी बात भोले मनुष्यों को फंसाने के लिये है क्योंकि इस पूर्वोक्त इच्छा से यहां के दुःखसागर से भी नहीं तरता और पूर्वजन्म के भी संचित पाप के दुःखरूपी फल भोगे विना नहीं छूट सकता । जो ऐसी २ मूठ अर्थात् विद्याविरुद्ध बात न लिखते तो इनके विद्यारूप ग्रन्थों को वेदादि शास्त्र देख सुन सत्यासत्य जानकर इनके पोकल ग्रन्थों को छोड़ देते परन्तु ऐसा जकड़ कर इन अविद्वानों को बांधा है कि इस जाल से कोई एक बुद्धिमान् सत्संगी चाहे छूट सके तो सम्भव है परन्तु अन्य जड़बुद्धियों का छूटना तो अतिकठिन है। मूल-जह्मजेणं हिंभणियं सुयववहारं विसहियंतस्से । जायइ विसुद्ध बोही जिणआणी राह गत्ताओ ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी० सू० १३८ ॥ जो जिनाचार्यों ने कहे सूत्र निरुक्ति वृत्ति भाष्यचूर्णी मानते हैं वे ही शुभ व्यवहार और दु.सह व्यवहार के करने से चारित्रयुक्त होकर सुखों को प्राप्त होते हैं अन्य मत के ग्रन्थ देखने से नहीं॥ (समीक्षक) क्या अत्यन्त भूखे मरने आदि कष्ट स- | हने को चारित्र कहते हैं जो भूखा प्यासा मरना आदि ही चारित्र है तो बहुतसे | मनुष्य अकाल वा जिनको अन्नादि नहीं मिलते भूखे मरते हैं वे शुद्ध होकर शुभ फलों को प्राप्त होने चाहिये स न ये शुद्ध होवें और न तुम, किन्तु पित्तादि के प्रकोप से , रोग होकर सुख के बदले दुःख को प्राप्त होते हैं धर्म तो न्यायाचरण, ब्रह्मचर्य, ;