पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

- =- = -= सत्यार्थप्रकाशः ।। | सत्यभाषणादि है और असत्यभाषणे अन्यायाचरणादि पाप है और सबसे प्रीतिपूर्वक परोपकारार्थ वर्चना शुभ चरित्र कहता है जैनमतस्थों का भूखा प्यासा रहना आदि धर्म नहीं इन सूत्रादि को मानने से थोड़ासा सत्य और अधिक झूठ को प्राप्त होकर दु.खसागर में डूबते हैं। मूल-जइजाणसि जिणलाहो लोयाया विपरकएभूओ । तातंतं मन्नं तो कहमन्नसि लोअ आयारं ॥ । प्रक० भा० २। षष्ठी० सृ० १४८ ॥ | जो उत्तम प्रारब्धवान् मनुष्य होते हैं वे ही जिनधर्म का ग्रहण करते हैं अर्थात् जो जिनधर्म का ग्रहण नहीं करते उनका प्रारब्ध नष्ट है ।। ( समीक्षक ) क्या यह बात भूल की और झूठ नहीं है ? क्या अन्य मत में श्रेष्ठ प्रारब्ध और जैनमत में नष्ट प्रारब्धी कोई भी नहीं है ? और जो यह कहा कि सधर्मी अर्थात् जैनधर्मवाले आपस में क्लेश न करें किन्तु प्रीतिपूर्वक वर्ते इससे यह बात सिद्ध होती है कि दूसरे के साथ कलह करने में बुराई जैन लोग नहीं मानते होंगे यह भी इनकी बात अयुक्त है क्योंकि सजन पुरुष सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों को शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं और जो यह लिखा कि ब्राह्मण, त्रिदण्डी, परिव्राजकाचार्य अर्थात् संन्यासी और तापसादि अर्थात् वैरागी आदि सब जैनमत के शत्रु हैं। अब देखिये कि सबको शन्नुभाव से देखते और निन्दा करते हैं तो जैनियों की दया और चमारूप धर्म कहां रहा क्योंकि जब दूसरे पर द्वेष रखना दया क्षमा का नाश और इसके समान कोई दूसरा हिंसारूप दोष नहीं जैसे द्वेषमूर्तियां जैनी लोग हैं. वैसे दूसरे थोड़े ही होंगे । रूपभदेव से लेके मेंहावीरपर्यन्त २४ तीर्थंकरों को रागी द्वेषी मिथ्यात्वी कहूँ और जैनमत माननेवाले को सन्निपातन्वर से फंसे हुए मानें और उनका धर्म नरक और विप के समान समझे । तो जैनियों को कितना बुरा लगेगा? इसलिये जैनी लोग निन्दा और परमतद्वेषरूप नरक में सूबकर महाकेश भोग रहे हैं इस बात को छोड़ दें तो बहुत अच्छा होवे ।। : मूल-एगो अगरू एगो विसाव गोचे इश्राणि विवहाणि । तच्छयजं जिणदव्वं परुप्परन्तं न विचन्ति ॥ प्रक० भा० २। पृष्टी० सृ० १५० ॥