पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| सत्यार्थप्रकाशः ।। करके भवसागर से तर जाते हो तो ज्ञान सम्यग्दर्शन और चारित्र क्यों करते हो ? रत्नसार भाग पृष्ठ १३ में लिखा है कि गौतम के अंगूठे में अमृत और उसके स्म३ रण से मनवांछित फल पाता है। ( समीक्षक ) जो ऐसा हो तो सब जैनी लोग अमर होजाने चाहियें सो नहीं होते इस से यह इनकी केवल मूख के बड्काने ३ की बात है दूसरे इसमें कुछ भी तत्त्व नहीं इनकी पूजा करने का श्लोक रत्नसार भा० पृष्ठ ५२ में: जलचन्दनधूपनैरथ दीपाक्षतकैनैवेद्यवखैः ।, उपचारवरैजिनेन्द्रान् रुचिरैद्य यजामहे ।। हम जल, चन्दन, चावल, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र और अतिश्रेष्ठ उपचारों ६ से जिनेन्द्र अर्थात् तीर्थंकरों की पूजा करें। इसी से हम कहते हैं कि मूर्तिपूजा जैनियों से चली है। ( विवेकसार पृष्ठ २१ ) जिनमन्दिर में मोह नहीं आता और भवसागर | के पार उतारने वाला है। ( विवेकसार पृष्ठ ५१ से ५२ ) मूर्तिपूजा से मुक्ति होती है | और जिनमन्दिर में जाने से सद्गुण आते हैं जो जल चन्दनादि से तीर्थंकरों की पूजा ३ करे वह नरक से छूट स्वर्ग को जाय । (विवेकसार पृष्ठ ५५ ) जिनमन्दिर में ऋषभ{ देवादि की मूचियों के पूजने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है। | ( विवेकसार पृष्ठ ६१) जिनमूर्तियों की पूजा करें तो सब जगत् के क्लेश छूट जाये । | (समीक्षक) अब देखो! इनकी अविद्यायुक्त असंभव बातें जो इस प्रकार से पापाई | बुरे कर्म छूट जायें, मोह न अवे, भवसागर से पार उतर जायें, सद्गुण आजार्य, नरक | को छोड़ स्वर्ग में जायें, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होवें और सर्व क्लेश छूः । | जायें तो सव जैनी लोग सुखी और सव पदार्थों की सिद्धि को प्राप्त क्यों नहीं होते ? ।इसी विवेकसार के ३ पृष्ठ में लिखा है कि जिन्होंने जिनमूर्ति का स्थापन किया है उन्होंने अपनी और अपने कुटुम्ब की जीविका खड़ी की है । ( विवेक सार पृष्ठ २२५ )शिव विष्णु आदि की मूर्तिर्यों की पूजा करनी बहुत बुरी है अर्थात् नरक का साधन है 1(समीक्षक ) भल। जव शिवादि की मूर्चियां नरक के साथ हैं तो जैनियों की मूर्तियां क्या वैसी नहीं है जो कहें कि इमारी मूर्त्तिवा त्यागी, शान्त भौर शुभमुद्रायुक्त हैं इसलिये अच्छी और शिवादि की मूर्ति वैसी नहीं इसलिये } बुरी हैं तो इनसे कहना चाहिये कि तुम्हारी मूर्चिया वो ङाङ्गों रुपयों के मन्दिर में