पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४७१

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-- द्वादशसमुल्लासः । रहती हैं और चन्दन केशरादि चढ़ता है पुनः त्यागी कैसी ? और शिवादि की मूर्तियां तो विना छाया के भी रहती हैं वे त्यागी क्यों नहीं ? और जो शान्त कहो तो जड़ पदार्थ सब निश्चल होने से शान्त हैं सब मतों की मूचिपूजा व्यर्थ है।( प्रश्न ) हमारी मूर्तियां वस्त्र आभूषणादि धारण नहीं करती इसलिये अच्छी हैं। ( उत्तर ) सब के सामने नंगी मूर्तियों का रहना और रखना पशुवत् लीला है । ( प्रश्न ) जैसे स्त्री का चित्र वा मूर्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है वैसे साधु और योगियों की मूर्तियों को देखने से शुभ गुण प्राप्त होते हैं । ( उत्तर ) जो पाषाणमूर्तियों के देखने से शुभ परिणाम मानते हो तो उसके जड़त्वादि गुण भी तुम्हारे में आजायेंगे । जब जड़ बुद्धि होंगे तो सर्वथा नष्ट हो जाओगे दूसरे जो उत्तम विद्वान् हैं उनके संग सेवा से छूटने से मूढ़ता भी अधिक होगी और जो २ दोष ग्यारहवें समुल्लास में लिखे हैं वे सब पाषाणादि मूर्तिपूजा करनेवाले को लगते हैं। इसलिये जैसा जैनियों ने मूर्तिपूजा में झूठा कोलाहल चलाया है वैसे इनके मन्त्रों में भी बहुत सी असंभव | बातें लिखी हैं यह इनको मन्त्र है । रत्नसार भाग पृष्ठ १ में: नमो अरिहन्ताणं नमः सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायणं नमो लोए सबबसाहूणं एसो पञ्च नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो सङ्गलाचरणं च सब्वे सिपढमं हुवई मङ्गलम् ॥ १ ॥ "इस मन्त्र का बड़ा माहात्म्य लिखा है और सब जैनियों का यह गुरुमन्त्र है । इसका ऐसा माहात्म्य धरा है कि तंत्र पुराण भादों की भी कथा को पराजय कर दिया है, द्धिदिनकृत्य पृष्ठ ३:-- नमुक्कार तउपढे ॥ ६ ॥ जउकब्बं । मन्ताणमन्तो परमो इसुत्ति धेयाणधेयं परमं इमुत्ति ।। तत्ताणतत्तं परमं पवित्तं संसारसत्ताणदुहाहयाणे ।। १० ।। ताणं अन्नन्तु नो अस्थि । जीवाणं भव सायरे । बुड्डू ताणं इमं मुत्तुं । न मुक्कारं सुपाययम् ॥ ११ ॥ कव्वं । अणे गजम्मंतरले चिआणं । दुहाणेसारीरिअमा