पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४७६

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- --- - सत्यार्थप्रायः ।। कुछ ध्यान भी न दिया यह कितना अन्धेर है।( तत्त्वविवेक पृष्ठ २०२ ) एक दिन | लब्धि साधु भूल से वेश्या के घर में चला गया और धर्म से भिक्षा मांगी वेश्या बोली कि यहां धर्म का काम नहीं किन्तु अर्थ का काम है तो उस लब्धि साधु ने साढ़े बारह लाख अशर्फ उसके घर में वर्षा दीं। ( समीक्षक ) इस बात को सत्य विना नष्टबुद्धि पुरुप के कौन मानेगा । रत्नसार भाग पृष्ठ ६७ में लिखा है कि एक पाषाण की मूर्ति घोडे पर चढ़ी हुई उसका जहां स्मरण करे वहां उपस्थित होकर रक्षा करती है । ( समीक्षक ) कहो जैनीजी आजकल तुम्हारे यहां चोरी, डांका आदि और शत्रु से भय | होता ही है तो तुम उसका स्मरण करके अपनी रक्षा क्यों नहीं करा लेते हो ? क्यों जहां तहां पुलिस आदि राजस्थानों में मारे २ फिरते हो ? अब इनके साधुओं क लक्षण: -=-=-=-= = -- = सरजहरणभैक्षभुजो लुञ्वितमूर्द्धजाः । श्वेताम्बरः क्षमाशीला निःसङ्गा जैनसाधवः ॥ १ ॥ लुञ्चिता पिक्षिका हस्ती पाणिपात्रा दिगम्बराः । ऊवासिनो गृहे दातुर्द्वितीयाः स्युर्जिनषयः ॥ २ ॥ भुङ्क्ते न केवलं न स्त्री मोक्षनेति दिगम्बरः । प्राहुरेषामयं भेदो अहान् श्वेताम्बरैः सह ॥ ३ ॥ | जैन के साधुओं के लक्षणार्थ जिनदत्तसुरी ने ये श्लोकों से कहे हैं (सरजोहरण) चमरी रखना और भिक्षा मांग के खाना, शिर के बाल लुञ्चित करदेना, श्वेत वस्त्र धारण करना, क्षमायुक्त रहना, किसी का संग न करना ऐसे लक्षणयुक्त जैनियों के श्वनाम्वर जिनको यती कहते हैं।। १।। दुमरे दिगम्बर अर्थात् वस्त्र धारण न करना, शिरके बाल 'उखाड़ डालना, पिच्छिका एक ऊन के सूतों का झाडू लगाने का साधन बगल में रखना, जो कोई भिक्षा दे तो हाथ में लेकर खा लेना ये दिगम्बर दूसरे प्रकार के सावु होत ६ ।। २ ।। और भिक्षा देनेवाला गृहस्थ जब भोजन कर चुके उसके पश्चात भनन करें वे जिनर्षि अर्थान् तीसरे प्रकार के साथ होते हैं दिगम्बरों का श्वेताम्बरा । नाय इतना ६: भेद है कि दिगम्वर ले ग बी का अपवर्ग नहीं कहते और श्वेताम्बर केहद ६ इत्यादि वाले मोक्ष के प्राप्त होते हैं।। ३।। यह इनके साधुओं का भेद है। इस