पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

४८६ सत्यार्थप्रकाशः ।। = == = = = = = प्रकरण० भा० ४। संग्रहलू० १३५ ॥ सम्यक्चरित्र सहित जो केवल वे केवल समुद्घात अवस्था से सर्व चौदह । राज्यलोक अपने आत्मप्रदेश करके फिरेंगे। ( समीक्षक ) जैनी लोग १४ (चौदह राज्य मानते हैं उनमें से चौदहवें की शिखा पर सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर थोड़े दूर पर सिद्वशिला तथा दिव्य आकाश को शिवपुर कहते हैं उसमें । केवल अर्थात् जिनको केवलज्ञान सर्वज्ञता और पूर्ण पवित्रता प्राप्त हुई है वे उस लोक में जाते हैं और अपने आत्मप्रदेश से सर्वज्ञ रहते हैं। जिसका प्रदेश होता है वह विभु नहीं जो विभु नहीं वह सर्वज्ञ केवलज्ञानी कभी नहीं हो सकता क्योंकि जिसका आत्मा एकदेशी है वही जाता आता हूँ और बद्ध, मुक्त, ज्ञानी, अज्ञानी होती हैं, सर्वव्यापी सर्वज्ञ वैसा कभी नहीं हो सकता जो जैनियों के तीर्थकर जीवरुप अस । अल्पज्ञ होकर स्थित थे वे सर्वव्यापक सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकते किन्तु जो परमात्मा अनाद्यनन्त सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, पवित्र, ज्ञानस्वरूप है उसको जैनी लोग मानव नहीं कि जिसमें सर्वज्ञादि गुण याथातथ्य घटते हैं। गब्भनति पलियाऊ । तिगाउ उकोसते जहन्नेणे । मुच्छिम दुहावि अन्तनुह। श्रङ्गुल असंख भागतणू ॥२४१॥ यहां मनुष्य दो प्रकार के हैं। एक गर्भज दूसरे जो गर्भ के विना उत्पन्न हुए उनमें गर्भज मनुष्य का उत्कृष्ट तीन पल्यापम का अायु जानना. और तीन कोश की शरीर । ( समीक्षक ) भला तीन पल्यापम का आयु और तीन कोश के शरीर काळे मनुष्य इस भूगोल में बहुत थोड़े समा सकें और फिर तीन पल्यापम की आयु जैसा | कि पूर्व लिख आये हैं उतने समय तक जीवें तो वैसे ही उनके सन्तान भी तीन कोश के शरीर चाले होने चाहियें जैसे मुम्बई से शहर में दो और झलकत्ता ऐसे शहर में तीन वा चार मनुष्य निवास कर सकते है जो ऐसा है तो जैनियों ने एक नगर में लाखों मनुष्य लिखे हैं तो उनके रहने का नगर भी लाख कोशी का चाहिये वो सव भूगोल में वैसा एक नगर भी न वस सके । पण्या ललरकयोयण । विरकंभा सिद्धिशिलफलिहावमला। तद्वरि गजायणते लोगन्तो तच्छ सिद्धटिई ॥ २५८ ॥ जो सर्वार्थसिद्धि विमान की ध्वजा से ऊपर १२ योजने सिद्धशिला है , ==