पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४८९

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द्वादशसमुल्लासः ॥ ४८७ वाटला और लंबेपन और पोलपन में ४५( पैंतालीस ) लाख योजन प्रमाण है वह सब धवला अर्जुन सुवर्णमय स्फटिक के समान निर्मल सिद्धशिला की सिद्धभूमि है इसको कोई ईषत्” “प्राग्भरा' ऐसा नाम कहते हैं यह सर्वार्थसिद्ध शिला विमान से १२ योजन अलोक भी है यह परमार्थ केवली श्रुत जानता है यह सिद्धशिला सर्वार्थ मध्य भागमें ८ योजन स्थूल हैं वहां से ४ दिशा और ४ उपदिशा में घटती २ मक्खी के पांख के सदृश पतली उत्तानछत्र और आकार करके सिद्धशिला की स्थापना है, उस शिला से ऊपर १ एक योजन के अन्तरे लोकान्त है वहां सिद्धों की स्थिति है। ( समीक्षक ) अब विचारना चाहिये कि जैनियों के मुक्ति का स्थान सर्वार्थसिद्धि विमान को, ध्वजाके ऊपर ४५( पैंतालीस ) लाख योजन की शिला अर्थात् चाहें ऐसी अच्छी और निर्मल हो तथापि उसमें रहनेवाले मुक्त जीव एक प्रकार के बद्ध हैं क्योंकि उस शिला से बाहर निकलने में मुक्ति के सुख से छूट जाते होंगे और जो भीतर रहते होंगे तो उनको वायु भी ने लगता होगा, यह केवल कल्पनामात्र अविद्वानों को फँसाने के लिये भ्रमजाल है । वितिचउरिं दिस सरीरं । वार सजायणति कोसच उकोर्स जोयणसहस पणिदिय । उहे वुच्छन्ति विसंतु ॥ प्रकरण भा० ४। संग्रह सू० २६७ ॥ सामान्यपन से एकेन्द्रिय का शरीर १ सहस्र योजन के शरीरवाला उत्कृष्ट जानना और दो इन्द्रियवाले जो शंखादि का शरीर १२ योजन को जानना और चतुरिन्द्रिय भ्रमरादि का शरीर ४ कोश का और पञ्चेन्द्रिय एक सहस्र योजन अर्थात् ४ सहस्र कोश के शरीरवाले जानना । ( समीक्षक ) चार २ सहस्र कोशके प्रमाणवाले शरीरधारी हों तो भूगोल में तो बहुत थोड़े मनुष्य अर्थात् सैकड़ों मनुष्यों से भूगोल ठस भरजाय किसी को चलने की जगह भी न रहे फिर वे जैनियों से रहने का ठिकाना और माग पूछे और जो इन्होंने लिखा है तो अपने घर में रख लें परन्तु चार सहस्र कोश के शरीर वाले को निवासार्थ कोई एक के लिये ३२ । यत्तीस ) सहन्न कोश का घर तो चाहिय ऐसे एक घर के बनाने में जैनियों का सव धन चुक जाय तो भी घर न बन सके, इतने बड़े आठ सहस्र कोश की छत्त बनाने के लिये लट्टे कहा से जावेगे ? और जो उसमें खभा लगावें तो वह भीतर प्रवेश भी नहीं कर सकता इसलिये ऐसी बातें मिथ्या हुआ करती हैं।