पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४९

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सत्यार्थप्रकाश । प्रच्छर्दनविधारणास्यां वा प्राणस्य ॥ योग. समा- धिपाद सू० ३४ ॥ जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे जब बाहर निकालना चाहे तव मूलेन्द्रिय को ऊपर खीच रक्खे रावतक प्राण वाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है जब घबराहट हो तब धीरे २ भीतर वायु को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामर्थ्य और इच्छा हो । और मन में ( ओ३म ) : इसका जप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन को पवित्रता और । स्थिरता होती है। एक "वाह्यविषय" अर्थात् बाहर ही अधिक रोकना । दूसरा "आभ्यन्तर" अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाय उतना रोक के तीसरा । "स्तम्भवृत्ति' अर्थात् एक ही चार जहा का तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना । चौथा "वाह्याभ्यन्तराक्षेपी' अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उस- से विरुद्ध न निकलने देने के लिये बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर ' आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाय । ऐसे एक दूसरे के विरुद्व क्रिया करें तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रिय भी स्वाधीन होते हैं । वल पुरुपार्थ वढकर बुद्धि तीन सूक्ष्मरूप होजाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य के शरीर मे वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर बल पराक्रम जिते- : न्द्रियता सव शास्त्रों को थोडे ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा स्नी भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे । भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े : छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें । सन्ध्योपामन जिसको ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं । "श्राचमन ' उतने जल को हथेली मे ले के उनके मूल और मध्य देश मे पोष्ट लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदयतक पहुचे न उससे अधिक न न्यून । उससे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोडीसी होती है । पश्चात् “भाजन" अर्थान् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अगों पर जल छिडके उमसे आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त न हो नो न करे चुन. समन्त्रक प्राणायाम मनमापरिक्रमण, उपस्थान पीछे परमेश्वर ! की स्तुति प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलाने । पश्चात् 'अधर्मपरण अर्थात् .