पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/५७०

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५६ दजयाबाद: । रहे और होवे दीन अल्लाह का। उन्होंने जितनी ज़ियादती की तुम पर उतनी ही तुम उन के साथ को ॥ में ० १ । सि० २ सू२ । आ० १७७ । १७५ । १७६ से १७८ । १७१ ! समीक्षक-जो कुरान में ऐसी बातें न हो तो मुठतमान लोग इतना बढ़ा अ- पराघ जो कि अन्य संत बालों पर किया है न करते और बिना अपराधियों को सारना उन पर बड़ा पाप । जो सलमान के मत का प्रण न करना है इंका कुछ कहते हैं अर्थात् कुफ्र से कृतल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं अर्थात् जो इमारे दीन को न मानेगा उसको हम कृतल करेंगे सो करते ही आये मज़हब पर लड़ते २ आप ही राज्य आदि से नष्ट होगये और उनका मत अन्य मत वालों पर आतिकठोर रहता है क्या चोरी का बदला चोरी है '१ कि जितना अपराध मारा चोर आदि करें क्या हम भी चोरी करें ? यह सर्वथा अन्याय की बात है, क्या कोई अझाना हम को गालियें दे क्या हम भी उस को गाली देने ? यह बात न ईश्वर की न ईश्वर के भक विद्वान् की और न ईश्वरोक्क पुस्तक की हो सकती है यह तो केवल स्वाथीं निरiहत मुख्य कई दें !! ३५ l ३६-अल्लाह झगड़े को मित्र नहीं रखती ॥ में लोगो को ईवा न लाये हो इव लाम में प्रवेश करो ॥ में ० १ । सि० २1 सू” २ I आ० १९० से १६ ! समीक्षक जो झगड़ा करने को खुदा मित्र नहीं समझता वो क्यों भाप ह मुसलमानों को झगड़ा करने में प्रेरणा करता है और झगड़ाद मुसलमानों से मिन्नता क्यों करता है ? क्या मुसलमानों के मत में मिलने ही वे खुदा र।जी है तो मुखलमानें ही का पक्षपाती है सब संसार का ईश्वर नहीं इसके यहां यहू विदित होता है कि न कुरान ईश्वरकृत और न इसमें का हुआ ईश्वर हो है सकता ॥ ३६ ॥ ३७ जिसको चाहे अनन्त रिजक देवे ॥ म० १ ॥ खि० २ । " अ० १९७ । समीक्षक-क्या विना पाप पुण्य के खुदा ऐसे ही रिजत देता है फिर भलाई बुराई का करना एकसा ही हुआ क्योंकि सुख दुःख प्राप्त होना उसकी इच्छा है इससे धर्म से विमुख होकर मुसलमान लोग यथेष्टाचार करते हैं और कोई २ इस कुरानोक्त पर विश्वास न करके धमा भी होते हैं 11 ३७ !! ३८-प्रश्न करते हैं तुझ से रजस्खला को कहे वो अपवित्र है पृथक रहो ऋल