पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ततयव्ास: । ४५ 4 के . । अर्थ-—अत्यन्त कामातुरता और निष्काम सा किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं क्योंकि वेचिहित क में जो काम ना न करे तो वेदों का ज्ञान और किसी से न होसकें इसलिये-- स्वाध्यायेन तैहमैनेवियेनेज्यया सुछ । महायज्ञश्च यद्मश्च ब्राह्मीय क्रियते तनुः ॥ मनु० अ० २, २८ ॥ अर्थ-( स्वाध्याय ) सकल विद्या पढने पढ़ाने (व्रत ) ब्रह्माचर्य सत्यभाषणदि । ' नियम पालने ( होम ) अग्निहोत्रदि होम सश्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने ( ऋविश्वेन ) वेदस्थ कपासनज्ञान विद्या के प्रहण (इज्यया) के पक्षेप्ट्यादि करने ( सुरें: ) सुसन्तानोत्पत्ति ( महायज्ञ: ) ब्रह्मा, देव, पि, वैश्वदेव और अतिथियो के सेवनरूप पंचमहायज्ञ और ( यहँः ) अनिष्टोमादि तथा शिल्प 1 विज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी वेद और परमेश्वर । विद्या अथात् की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर किया जाता है । इतने साधनों के वि ना ? झण शरीर नहीं बन सकता:-- इन्द्रियाणां विचरता विषयेवपहारिख । संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेय वाजिना ॥ मनु० २। म८८ ॥ है अर्थ—जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों मे धुंचनेवाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियो के निग्रह में प्रयत्न ? सय प्रकार से करे क्योंकि --- ' इन्द्रिया प्रसह्न दोषमृच्छत्यसंश्यम् । सन्नियन्य तु तान्येव ततः सिकूि नियच्छति ॥ मनु० २ से १२ ॥ अर्थ-जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े २ द्रोपो को प्राप्त होता है। 1 और जब इन्द्रियो को अपने वश में करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है:-