पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६३६ है स्वमन्यमन्वव्यू: ! के रूप में हैं ? १५ प्रथम ईश्वर’ कि जिसके ब्रह्मा, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुत है जिसके गुणकमेंस्वभाद पवित्र हैं, जो सर्वेश, निराकार, सर्वव्यापक, (अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयाछ, न्यायकारीसब सृष्टि का काँ, धल, चीं, 'जय जीवों को कमतुवार खस्य न्याय से फळदाता आदि छक्षणयुक है उसी को परमेश्वर मानता हूं ! २-चारों ‘वेदों' ( विद्या धर्मयुद्ध ईश्वरप्रणीत संहिता सम्भाग ) को नि भ्न्त स्वत: प्रमाण मानता हूं, वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनके प्रमाण होने में किसी अन्य प्रन्थ की अपेक्षा नहीं, जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्त्ररूप के स्वत: प्रकाशक और पृथिध्यादि के भी प्रकाशक होते हैं वैसे चारों बेद हैं और चारों वेदों के ब्राह्माण, छ: श्र, छः उपाहू, 'चार उपवेद और ११२७ ( ग्यारह सौ सचाईख ) वेदों की शास्त्र जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षि के बनाये प्रन्थ हैं उनको पराः प्रमाएं अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इनमें वेइविरुद्ध बचन ६ उनका अपमा करता हूं । ३-झो पक्षपातरहितन्यायाचरण सरयभाष णदियुक ईश्वर झा वेदों से विरुद्ध है उसको धर्म’ और जो पक्षपातहित अन्यायावरण मियाभाषणादि ईवराता भंग वेदविरुद्ध है उसको ‘अध मानता है । ४-जो इच्छा, सुजदुःख और ज्ञानादि गुणवुड अल्प निरय है उसी को 3जीवनमानता । ५-जीव और ईश्वरस्वरूप और वैधों से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साघों से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूहिंस।न् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, न है, न होगा इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को न्याय व्यापक, उपास्य उपासक आर पिता पुत्र आदि चवन्धयुक्त मानता हूं । । ६--‘अनादि पदार्थ तन हैं एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात् जगन् का कारण इन्हीं को नित्य भी कड़े हैं, जो नेय पदार्थ हैं उनके गुणकर्म, स्वभाव भी नित्य हैं । ७ प्रवाह से अनादि' जो संयोग से द्रव्य, , कर्म उत्पन्न होते हैं से वियोग के पश्चात् नहीं रहते परन्तु जिससे प्रथम संयोग होता है व६ सामर्थ्य वनमें अदि है और उससे पुनरपि दंयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीनों ो प्रवाह से दि मानता हूं । । थे Ge