पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६२८

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६५६ अस्पार्लनकाश: । ० ८-‘सुष्टि ” उसको कहते हैं जो पृथ द्रव्यों का ज्ञान युधिपूर्वक हो नारूप बनना है ९ -‘सृष्टि का प्रयोजन' यही है कि जिसमें ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुणकम स्वभाव का साफल्य होना । जै से किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किसलिये हैं१ डर ने कहा देखने के लिये 1 वैसे ही सुष्टि करने के ईश्वर के के सामथ्र्य की सफलवा स करने में है और जीवों के कर्मी का यथावत् भोग करना आदि भी ॥ ' –‘सृष्टि सकतृक" है इस का कल पूक ईश्वर है क्योंकि सृष्टि की रच देखने और जडु पदार्थ में अपने आप यथायोग्य वीजादि स्वरूप बनने का साम' न होने से पुष्टि का ‘कत्र अवश्य है । ११ ‘बन्ध' सनिमिन अर्थात् अविवा-निमिच से है । जो २ पापव ईश्वर भिन्नोपासना आज्ञानादि पुत्र दुःन फत करनेवाले हैं इसीति ये य8 “वनघ" के जिी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है । , १२ -'मुiके" अयोत् स :खों वे छूट कर बन्धहित सर्वव्यापक गई। और उसकी सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के प्रानन्द भरा के पुन: प्रसार में Iन ॥ १३-“मुक्ति के साधन" ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यासधर्मानुष्ठान, झांच ये विद्या प्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यवि, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं । । १४–'अथ" व है िजों धर्म ही से प्राप्त किया जाय और जो अधमें सद्ध ६ा ६ व का अनये कहृव है। १५-‘काम है कि धर्म से जाय तो व जो और अर्थ प्राप्त किया ! १६-वर्णाश्रम’ गुण कों की योग्यता से मानता हूं । १७ -‘राजा" इसी को कहते हैं शुभभगुण कर्म स्वभाव जो से प्रकाश, पक्षपातरहित न्यायधर्म की सेवा, प्रज्ञा ठे में पितृवत् वर्दी और उनको } के उनकी उन्नति और सुख बढाने में सदा यत्न किया कर ! ? १८–प्रजाउसको कहते हैं कि जो पवित्र स्वभाव को ‘’ गुणकर्मयह

करके पक्षपातरहित न्याय धर्म के खेवन से राजा और प्रजा की उन्नाव बा

isद्र रtदव (ज ' य नवल व द मै! १४--- झो सदर विचार कर बदस्य को छोड़ सत्य का प्रहण करे, अन्य