पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६४

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तृतीयसमुचास:।।

योsवमन्षत ते मूले हेतुशास्त्रानयाद द्विज। स सामूभियंहिष्का नtस्तकf वेदनिन्दकः ॥ म० : ११ ॥ जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुष के लिये शात्रों का अपमान करता है उस न वेटनिन्दक नास्तिक को जाति, पति और देश से बाह्य कर देना चाहिये, क्योकि: वद: स्त: सदाचार: स्वय व प्यमाम: । पतलुधि शाः साक्षाई स्य लक्षणम् । मनु० २ । १२ ॥ वेद, स्टांत, बदानुकूल आाप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शाब, सत्पुरुष का आाचार जो सनातन अर्थात् वेदद्वारा परमेश्वरप्रतिपादित कर्म और अपने आत्मा में प्रिय अर्थात् 7 जिसको आात्मा चाहता है जैसा कि सत्य भाषणये चार धर्म के लक्षण अत् ! इन्हीं से धधर्म का निश्चय होता है जो पक्षपातरहित न्याय सत्य का ग्रहण 1 असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आाचार है उसी का नाम धर्म श्र इससे विपरीत } ज पक्षपातसहित आन्यायाचरण सस्य का त्याग और असत्य का प्रहणरूप कम है । ' ' उसी को अधर्म कहते हैं ! अर्थक्राडब्सक्ता धान विधीयते । वर्म जिज्ञासमानान मार्ग पर श्रुतिः ॥ मतु० २ से १३ । नदि से फत जो पुरुष (अर्थ ) सुवदि रत्न और ( काम ) वीमेवमें नही ' रर हैं उन्ही को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है जो धर्म के शान की इच्छा जये पेाग

  • धर्म का निश्चय करे है क्योंकि धमsधर्म का निश्वय विना वेट के ठी व ३ वर्ष होता ॥

इस प्रकार अपाये अपने शिष्य को उपदेश करे और विपकर राजा को