पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६६

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तृतीथसमुल्स: । ५३ इन्द्रियार्थसन्निकत्पन्नू ज्ञानमध्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकस्प्रत्यक्ष ॥ न्याय० । अ० १ । आहक १। | सूत्र ४ ॥ जो श्र, त्वचा, चक्ष, जिह्वा और प्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवर णरहित सम्बन्ध होता है इन्द्रियों के साथ सम का और सन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है उसको प्रत्यक्ष कहते है परन्तु जो व्यपदेश्य अर्थात् संझासंज्ञी के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह ज्ञान न हो । जैसा किसी ने किसी से कहा कि ‘‘तू जल से आ व३ लाके उस के पास धर के बोला कि ‘‘यह जल है4 परन्तु वहां ‘जल’’ इन दो अक्षरों की संज्ञा लाने वा सँगानेवाला नही देख सकता है 1 किन्तु जिस पार्क का नाम जल है वही प्रत्यक्ष होता है और जो शब्द से ज्ञान उत्पन्न होता है वह शब्दप्रमाण का विषय है। ‘अव्यभिचारिम जैसे किसी ने रात्रि में खम्भे को देख के पुरुष का निश्वय कर लिया जब दिन में उसको देखा तो रात्रि का पुरुषज्ञान नष्ट होकर स्तम्भझान रहा ऐसे विनाशीज्ञान का नाम व्यभिचारी है सो प्रत्यक्ष नहीं कहता। व्यवसायात्मक किसी ने दूर से नदी की बाछ को देख के कहा कि ‘‘वां वन सूख रहे हैं जल है वा और कुछ है’ ‘वह देवदत्त खड़ा हैबा यज्ञ त’’ जवत एक निश्वय न हो तबतक वह प्रत्यक्ष झ।न नही है किन्तु जो अब्यपदेयअच्यभिचारि । और निश्चयात्मक ज्ञान है उसी को प्रत्यक्ष कहते है । दूसरा अनुमान। थ तत्पक त्रिविधमनुमान पूर्ववच्छेषवरसामान्यतो दृष्टडच न्य०अ० १ 1 अ० १ । स्० ५ ॥ जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश व ( सम्पूर्ण पद किसी स्थान व काल से प्रत्यक्ष हुआ या हो उसका दूर देश से सवारी एक देश के प्रत्यक्ष होने | से ग्रष्ट अवयवी का ज्ञान होने को अनुमान कहते है । जैसे पुत्र को देश के पिता 1 पर्वतदि में घूम को देख के आग्नि, जगत् से सुख दुःख देख के पूर्व जन्म का ज्ञान ' से दता है िवह अनुमान तीन प्रकार का है। एक ‘‘र्ववन यात्रा को देने के वर्षा, विवाह को देख के सन्तानोत्पत्ति, पढ़ते हुए विद्यार्थीि को देख के विद्या