पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६९

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५६ सत्यायप्रका. । धर्मविशेषग्रसूताद् द्रव्यगुणकर्ससामान्यविशेयरूमवा यान पदाथानां साधoवैधयोभ्यां तवीनान्निः य e . स ॥ चै० । ० १ ॥ था० १ । सू९ ४ ॥ जब मनुष्य धर्म के यथायोग्य अनुष्ठान करने से पवित्र होकर १" समस्या अर्थात् जो तुल्य धर्म हैं जैसा पृथिवी जड़ र जल भी जड़ ‘‘वैधर्म' अर पृथिवी कठोर और जल कोमल इसी प्रकार से द्रव्य, गुणकर्मसामान्य, विशेप और समवाय इन छ पदाथों के नवज्ञान अन् स्वरूपज्ञान को प्राप्त होता तब उससे ‘‘निश्रेयस' मोक्ष को प्राप्त होता है । पृथिव्यापस्तेजवायुराका कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याण ॥ बै०। अ० १। आ० १ । सू० ५ ॥ पृथिवी, जलतेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और सन ये नव द्रव्य हैं। क्रियागुणवत्तमवायिकारणमिति द्रव्यलक्षण है। वै- । अ० १ । श्रा० १ । इ९ १५ ॥ ‘क्रियाश्व गुणाश्व विद्यन्ते यास्मस्तत् जिंयागुणवन्’' जिसमें क्रियागुण और ! केवल गुण रद्द उसको द्रव्य कहते हैं । उसमें से पृथिवी, जल, तेजवायु, खून और आत्मा ये छ. द्रय क्रिया और गुणवाले हैं। तथा आकाश, काल और दिशा । ये तीन क्रिया हित गुणवाले हैं ( समवाय ) “समवेतु शील यस्य तत् समवाधि प्रावृतित्व कारण समवाय च तकारण च ससवायिकारणत: लयते चेन तट क्षण जो मिलने के स्वभावयुक्त कार्य से कारण पूवेकालरय हो उसी को द्रव्य कहते हैं जिससे लय जाना जाय जैसा आंख से रूप जाना जाता है उसको ' हर कह त है 1 रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी ॥ वै० । अ० २। आ० १। १ । रूप, रस, गन्ध, पृथिवी है। उसमें रूप, रस और स्पर्श अग्नि | स्पोवाली जल ‘श मय या हुई