पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७०

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तृतीयसमुल्लास: ! ॥ ५७ व्यवस्थितः पृथियां गन्धः ॥ वै० । अ० २ । आ० २। ० २ ॥. पृथिवी से गन्ध गुण स्वाभाविक है । वैसे ही जल में रस, आग्नि में रूप, वायु म स्पर्श और आकाश में शब्द स्वाभाविक है । रूपरसस्पर्शवदय आप द्रवाः स्निग्धाः ॥ वै० । अ०२। अ० १ । सू० २ है। रूपरस और स्पर्शवान् द्रवीभूत और कोसल जल कहता है । परन्तु इनमें जल का रस स्वाभाविक गुण तथा रूप स्पर्श आग्न और वायु के योग से हैं ! अप्सू शीतता ॥ वै०। ० २ । आा० २ सू’ ५ ॥ और जल से शीतलस्य गुण भी स्वाभाविक है । तेज रूपस्पर्द्धवत् ॥ वै० अ० २। आ० १ 1 सू० ३ ॥ जो रूप और स्पर्शवाला है वह तेज है । परन्तु इसमें रूप स्वाभाविक और स्पर्श वायु के योग से है । । स्पर्शावान वायुः ॥ ° । अ० २.। आ० १ । सू० ४ ॥ स्पर्श गुणवाला वायु है ! परन्तु इसम भी उष्णता शीतता तेज और जल के योग से रहते हैं ! त नाकाशे न विद्यन्ते ॥ वै० । अ०२ । आ० १। ०५ ॥ रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आकाश में नहीं हैं। किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है। निष्क्रमण प्रवेशनमित्याकाशस्य लिफ्रेंस ॥ बै० । अ० २। आ० १ के स० २० है। जिसमे प्रवेश और निकलना होता है वह आकाश का लिलू है । कार्यान्तरामादुभवाच्च शुरु दः स्पर्शवतासगुणः ॥ व० से अ० २ । शा० १ से ० २५ ॥