पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७१

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+ ५८ सत्यार्थप्रकाश ॥ अन्य पृथिवी आदि कार्यों से प्रकट न होने से शब्द स्पर्श गुणवाले भूमि आदि का गुण नहीं है । किन्तु शब्द आकाश ही का गुण है ॥ अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि ॥ वै० । अ० २ । प्रा० २ । सू० ६ ॥ जिसमें अपर पर ( युगपत् ) एकवार ( चिरम् ) विलम्ब ( क्षिप्रम् ) शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते हैं उसको काल कहते हैं । नित्येष्वभावादनित्येषु भावात्कारणे कालाख्यति ॥ वै० । अ० २ । प्रा० २ । सू० ६ ॥ जो नित्य पदार्थों में न हो और अनित्वो में हो इसलिये कारण में ही काल संज्ञा है । इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिङ्गम् ॥ वै० । अ० २। श्रा० २ । सू० १० ॥ यहा से यह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे जिसमें यह व्यवहार होता है उसी को दिशा कहते हैं । आदित्यसंयोगा भूतपूर्वाद् भविष्यतो भूताच्च प्राची॥ वै० । अ० २। आ० २ । सू० १४ ॥ जिस ओर प्रथम आदित्य का संयोग हुआ, है, होगा, उमको पूर्व दिशा कहते हैं। और जहा अस्त हो उसको पश्चिम कहते हैं पूर्वाभिमुख मनुष्य के दाहिनी ओर दक्षिण और वाई और उत्तर दिशा कहाती है ।। एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि ॥ वै० । अ०२। श्रा० २। सू० १६॥ इससे पूर्व दक्षिण के बीच की दिशा का आग्नेयी, दक्षिण पश्चिम के बीच को नति, पश्चिम उत्तर के बीच को वायवी और उत्तर पूर्व के बीच को ऐशानी दिशा कहते है।