पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७८

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मृतावसमुल्लास: ? । ६५ सदकारणवनित्यम् ॥ वै०। अ० ४ । आ० १ । ०१ ॥ । जो विद्यमान हो और जि का कारण कोई भी न हो बद्द निर्णय है अर्था:- ! सवार रणवइनित्य जा कार वाले कार्य का गुण हैं वे आमित्य कहते हैं ॥ ! नये कार्य कारण संयोगि विरधि ससवापि चेति लेडिक्म् ॥ वै० । अ० & । आ० २ सू० १ ॥ इसका यह कार्य वा कारण है इत्यादि समवाय, सं योगि, एतार्थ सवाय और विरोध यह चार प्रकार क लैमई से अ न लि न लेनो के न्ध में ज्ञान होता है । ‘‘सो' जै ने आकाश परि मात्रा है ‘सयोगि५ जैसे से शरीर त्व- चावल है इस्यादि का निस्य मनोग है ' एक पमत्रा"ि एक अर्थ में दा का रहना जैसे कार्यरूप से कार्य का लि अर्थीत जतानेवाला है विरोधि" जसे हुई वृष्टि होनेगाली वृष्टि का विरोधी लिन है ‘‘व्याप्ति नियतधर्मेसाहित्यमुभयोरेकतर स्य वा व्या।तिः ॥ । निजक्युलामयाचाया: । आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिः 11 सांख्य० ॥ श्र० ५ । सु० २४ । ३१। ३२ ॥ । जो दोनों साक्ष्य साधन अन् सिद्ध करने योग्य और जिससे सिद्ध किया । । 3 जाय उन दोनों अथवा एक, साधन मात्र का निश्चित धर्म का सह चार है कमी को 3 ज्याप्ति कहते हैं जैसे धूम और अग्नि का सटू चार है ॥ २२ ॥ तथा व्याप्य जो घूम उकी नि शक्ति से उत्पन्न होता है अर्थात् जब देशान्तर में दूर धूम जाता ! है , तब बिना अग्नियोग के भी धूम स्खयं रहता है । उनमी का नाम व्याप्ति है अर्थात् । अग्नि के छेदन, भेदन, सामथ्र्य से जलादि पदार्थ धूमरूप प्रकट होता है , ३१ ॥ जै स महत्तवदि से प्रकृह पदि की यातना धु द्वय।दि में व्याप्यता धर्म सध ? का नाम व्याप्ति है। । जै शक्ति आधेयरूप और शक्तिमान् अवधाररूप का में सम्बन्ध है ।1 ३२ ॥ इत्यादि शाों के प्रमाणादि से परीक्षा कर दें और पढ़ाई में अन्यथा २ ग्रन्थ पढ़ाव उम २ विद्यार्थियों को सत्य वध कभी नहीं हो स फ़ता जिस । को २ ग्रन्थ । की पूर्वी प्रकार से परीक्षा करके जो सदस्य ठहरे वह पढ़वें जो २ इन } परीक्षों से विरुद्ध हों उन २ म्ों को न पड़े न पढ़ाये क्योंकि –