पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७९

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६६ सत्यपथप्रकाश: ! लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः ॥ लक्षण जैसा कि ‘गन्धवती पृथिवी' जो 1थवा है वह गन्धवाती है ऐसे लक्षण आर प्रत्यक्षादि प्रमाण इनसे सब सदयाsसस्य और पदाथों का निर्णय हो । जाता है इसके विना कुछ भी नहीं होता ॥ अथ पठनपाठनविःि ॥ ट अब पढ़ने पढाने का प्रकार लिखते हैंप्रथम पाणिनिमुनिकृत शिक्षा जो कि | सूत्ररूप है उसकी रीति अर्थात् इस अक्षर का यह स्थान यह प्रयत्न यहू करण है। जैसे “प इसका आष्ट स्थान, स्पृष्ठ प्रश्रत्न और प्राण तथा जीभ की क्रिया करनी करण कहता है इसी प्रकार यथायोग्य सत्र अक्षरों का उच्चारण माता पिता आचार्य भिखताबें । तदनन्तर व्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ जैसे ‘वृद्धि - रवैक्" फिर पदच्छेद “वृद्धि., अन्न, ऐ व आदेy ” फिर समास आच्च ऐच ‘ आई' और अर्थ जैसे ‘“आदैचां वृद्धि मजा क्रियते' अर्थात् आा, ऐ, औ की वृद्धि संज्ञा कीजाती है ‘त: परो यस्मरल तपरस्त।दषि परस्तपर: ' तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो वह पर कहता है इससे क्या सिद्ध हुआ जो आकार से परे न और त् से परे ऐ दोनों तपर हैं तपर का प्रयोजन यह है कि इस्ख और प्छत की वृद्धि सज्ञा न हुई । उदाहरण ( भाग: ) यहां ‘‘भज’' धातु से घर' प्रस्यय के परे “ध, लू' की संज्ञा होकर लोप होगया पश्चात् ‘भज् अ यहा जकार क पूवे भकारोत्तर अकार को वृद्धि शक आकार होगया है । तो भाजू पुन, ‘‘" को ग् हो अ फार के साथ मिलके ‘‘भाग.’ ऐसा प्रयोग हुआ ‘अध्याय यहा अधिपूर्वक ‘' धातु के हूम्ब इ के स्थान में 'घ प्रत्यय के परे ‘‘ऐ' ! बुद्धि और g को 'आ।यु हो मिल के “अध्याय ' ‘नयी. ' यहां ‘ नी'’ धातु के दीर्ष ईकार के स्थान में ‘ण्युछ ' प्रत्यय के परे ‘‘ऐ वु द्ध और उको आयु कर मिल के .’ और स्ताव.'ग्रह्म ‘‘स्तु’ धातु से ‘‘ण्ड्लू प्रस्यय होकर ! ‘‘नायक ‘ हैन्य प्रकार के स्थान में औ वृद्रि आबू आदेश होकर अकार से मिल गया तो ! ‘‘तोघ " ' कुजू ) धातु से आगे ‘ण्युलू' प्रस्यय लू की इमंझा होके लोप ‘“ड' ' के स्थान में अफ प्रदेश और अकार के स्थान म ‘‘आ ’ वृद्धि होकर कारक: मिस्र ा । जो २ सूत्र अमरा पछ क प्रयाग में लोग उनका कार्य सव बतलाता जयऔर रलेट अथवा लकड़ी के पट्टे पर दिखला २ के कच्चा रूप धर के जैसे ?